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३०६ | अध्यात्म-प्रवचन
का प्रतिपादन कर रहा है और उसके लक्षण के कथन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वह पूर्वकालीन चिन्तन और साथ ही मेरे अपने वर्तमान चिन्तन का परिणाम ही है।
आज का सबसे मुख्य प्रश्न यह है, कि सम्यक् दर्शन क्या है ? यह प्रश्न आज ही उत्पन्न नहीं हआ, अतीत काल में भी उत्पन्न हो चुका है और अनन्त भविष्य में भी उत्पन्न होता रहेगा। परन्तु सभी युगों में मुलरूप से इसका एक ही उत्तर दिया जाता रहा है, कि सप्त तत्व एवं नव पदार्थ पर यथार्थश्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शन को इससे सुन्दर अन्य कोई परिभाषा नही दी जा सकती। एक बात ध्यान में रहे । इस सम्बन्ध में पहले भी बताया जा चुका है, कि सम्यक् दर्शन वास्तव में अनुभूति का विषय है । फिर भी यह सत्य है, कि मन्द बुद्धि साधक को समझाने के लिए, उसका कुछ न कुछ शाब्दिक लक्षण करना ही होगा और वही लक्षण मैंने आपको बतलाया है। प्रश्न किया जा सकता है, कि जब तत्व-श्रद्धान अथवा पदार्थ-श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है, तब यह जिज्ञासा रहती है कि वह तत्व क्या है और कितना है ? इसके समाधान में कहा गया है, कि यथाभूत सत् अर्थ तत्त्व है, और वह सात प्रकार का है-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । यदि इन सात तत्वों में आस्रव अथवा बन्ध के बाद पूण्य और पाप को और मिला दिया जाए, तब वे नव पदार्थ हो जाएंगे। इन तत्व एवं पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धान सम्यक दर्शन है, और यथार्थ बोध सम्यक ज्ञान है और उनका यथार्थ परिपालन सम्यक् चारित्र है। परन्तु इतनी बात ध्यान में रखिए, कि सम्यक् दर्शन के होने पर ही, ज्ञान सम्यक् बनता है और चारित्र, सयम्क् चारित्र बनता है ।
भारतीय दर्शन में और विशेषतः अध्यात्मवादी दर्शन में साधना के स्वरूप को बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। भारतीय दर्शन बाहर में देव, गुरु और धर्म की बात अवश्य करता है, परन्तु फिर वह झट अन्दर को ओर चला जाता है । अन्दर में यदि सत्य है, तभी तो वह बाहर प्रकट होगा। यदि अन्दर में ही अन्धकार है, तो बाहर में प्रकाश कैसे फैलेगा ? प्रत्येक सद्गुरु, साधक से कहता कि नरक और स्वर्ग तथा मोक्ष-ये कहीं बाहर में नहीं हैं, ये तो मूलतः तेरे अन्दर में ही हैं । तेरे मन के अन्दर का नरक ही तुझे नरक में ले जाता है, तेरे मन के अन्दर का स्वर्ग ही तुझे स्वर्ग में ले जाता है और
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