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________________ रत्नत्रय की साधना | ५१ वाह्य क्रिया काण्ड ही नहीं है । वाह्य क्रिया काण्ड तो अनन्त काल से और अनन्त प्रकार का किया गया है, किन्तु उससे लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकी । बाह्य क्रिया काण्ड अध्यात्म साधना में यथावसर उपयोगी एवं सहायक तो हो सकता है, किन्तु वही सब कुछ नहीं है । सम्यक् चारित्र आत्म-स्थिति रूप है, अतः वह आत्मरूप है, अन्य रूप नहीं । अध्यात्मवादी दर्शन के समक्ष जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य स्वरूप की उपलब्धि, स्व स्वरूप में लीनता और स्व-स्वरूप में रमणता है । शास्त्र की परिभाषा में इसी को भाव चारित्र कहा जाता है । जीवन विकास के लिए द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता है । परन्तु अनिवार्यता और अपरिहार्यता भाव की ही रहेगी । यदि भाव है तो द्रव्य का भी मूल्य आंका जा सकता है। किन्तु, भावशून्य द्रव्य का कुछ भी मूल्य नहीं है । यदि केवल एक का अंक ही है, शून्य नहीं है, तब भी उस एक अंक का मूल्य है, किन्तु अंक-शून्य शून्य विन्दुओं का क्या मूल्य हो सकता है ? भले ही उन शून्य बिन्दुओं को कितनी ही संख्या क्यों न हो । यदि शून्य बिन्दुओं के प्रारम्भ में कोई भी अंक होगा, तो जितने शून्य विन्दु बढ़ते जाएँगे उसकी संख्या का महत्व भी उतना ही अधिक बढ़ता जाएगा । अध्यात्मवादी दर्शन गणित के इसी सिद्धांत को अध्यात्म क्षेत्र में लागू करना चाहता है । वह कहता है कि यदि निश्चय चारित्र नहीं है, निश्चय शून्य केवल व्यवहार चारित्र है, तो उससे कभी भी स्व-स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । व्यवहार का मूल्य अवश्य है, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु उसका मूल्य और महत्व निश्चय के साथ ही है, निश्चय से अलग नहीं । निश्चय से शून्य व्यवहार भी व्यवहार नहीं है, वह मात्र व्यवहाराभास है, जो आत्मा को और अधिक बन्धन में ता है, मैं आपसे मोक्ष मार्ग की, मुक्ति के उपाय एवं साधनों की चर्चा कर रहा था । मैंने संक्षेप में यह बतलाने का प्रयत्न किया, कि अध्यात्म क्षेत्र में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का कितना महत्व है, कितना मूल्य है और कितना उपयोग है? ये तीनों ही मुक्ति के उपाय हैं, पृथक् रूप से नहीं, समुचित रूप से । सम्यक् दर्शन मिथ्या ज्ञान को भी सम्यक् ज्ञान बना देता है । आकाश में स्थित सूर्य जब मेघों से आच्छन्न हो जाता है, तब यह नहीं सोचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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