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________________ ५० | अध्यात्म-प्रवचन को जब उक्त तथ्य का पता चला, तब वे सब आश्चर्यचकित हो गये। गुरु के हृदय में इस बात की परम प्रसन्नता थी, कि मेरे शिष्य का अज्ञान सर्वथा दूर हो गया और केवल-ज्ञान की वह अमर ज्योति उसे प्राप्त हो गई, जो अभी तक मुझे और अन्य शिष्यों को भी प्राप्त नहीं हो सकी है। इससे बढ़कर गुरु को और क्या प्रसन्नता हो सकती थी? मैं आपसे कह रहा था कि जब तक अन्दर के विकल्प और विकार दूर नहीं होंगे, तब तक आत्म-साधना का फल प्राप्त नहीं हो सकता। यदि ज्ञान आत्मा के राग द्वेषात्मक विकल्पों को दूर नहीं कर सकता, तो वह वास्तव में सम्यक ज्ञान ही नहीं है। वह सूर्य ही क्या, जिसके उदय हो जाने पर भी रात्रि का अन्धकार शेष रह जाए? सम्यक ज्ञान की उपयोगिता इसी में है, कि उसके द्वारा साधक अपने विकल्प और विकारों को समझ सके । उन्हें दूर करने की दिशा में उचित विचार कर सके। आत्म-सत्ता की सम्यक प्रतीति हो जाने पर और आत्म-स्वरूप की सम्यक् उपलब्धि अर्थात् ज्ञप्ति हो जाने पर भी जब तक उस प्रतीति और उपलब्धि के अनुसार आचरण नहीं किया जाएगा, तब तक साधक की साधना परिपूर्ण नहीं हो सकेगी। प्रतीति और उपलब्धि के साथ आचार आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । हमने यह विश्वास कर लिया कि आत्मा है, हमने यह भी जान लिया कि आत्मा पुद्गल से भिन्न हैं, परन्तु जब तक उसे पुद्गल से पृथक करने का प्रयत्न नहीं किया जाएगा तब तक साधक को अभीष्ट सिद्धि नहीं हो सकती। सम्यक् दर्शन होने का सबसे बड़ा फल यही है, कि आत्मा का अज्ञान सम्यक ज्ञान में परिणत हो गया। परन्तु सम्यक ज्ञान का फल यह है कि आत्मा अपने विभाव को छोड़कर स्वभाव में स्थिर हो जाए। आत्मा अपने विकल्प और विकारों को छोड़कर स्व-स्वरूप में लीन हो जाए । विभाव, विकल्प और विकारों से पराङ मुख होकर अन्तमुंख होना, इसी को स्वरूप-रमण कहा जाता है। और स्वरूप में रमण करना, अर्थात् स्व-स्वरूप में लीन हो जाना, यही आध्यात्मिक भाषा में सम्यक् चारित्र है । यही विशुद्ध संयम है और सर्वोत्कृष्ट शील है। चारित्र, आचार, संयम और शील आत्मा से भिन्न नहीं है। आत्मा की ही एक शुद्ध शक्ति-विशेष है। जैन-दर्शन कहता है किविश्वास को विचार में बदलो और विचार को आचार में बदलो, तभी साधना परिपूर्ण होगी । चारित्र, अथवा आचार का अर्थ केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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