SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नत्रय की साधना | ४६ उसे वह लघु सूत्र भी याद नहीं रहा। उसके बदले वह "मासतुष रटने लगा । जिसका अर्थ होता है-उड़द का छिलका। इसी को गुरु के द्वारा दिया हुआ सूत्र समझकर वह निरन्तर रटता रहा और जपता रहा । रटते-रटते उसकी भावना विशुद्ध और विशुद्धतर होती गई । अभ्यास में बड़ी शक्ति होती है। निरन्तर का अभ्यास और निरन्तर की साधना से, सब कुछ साधा जा सकता है। भले ही गुरु के द्वारा दिये गए सूत्र के शब्द उसे अक्षरशः याद न रहे, किन्तु गुरु द्वारा दी गई भावना को उसने पकड़े रखा। शक्ति शब्द में नहीं रहती, उसकी भावना और अर्थ में रहती है। शब्द जड़ है, क्योंकि वह भाषा-रूप होता है, किन्तु जब उस शब्द में भावना का रस उँडेल दिया जाता है, श्रद्धा एवं आस्था का रस डाल दिया जाता है, तब उसमें अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है। गुरु ने अपने मन्द बुद्धि शिष्य को जो सूत्र दिया था, उसकी भावना यह थी कि-किसी पर द्वष मत करो और किसी पर राग मत करो। राग और द्वेष यही सबसे बड़े बन्धन हैं । राग और द्वष के विकल्प जब तक दूर नहीं होंगे, तब तक अध्यात्म साधना सफल नहीं हो सकती। राग और द्वष के विकार को दूर करने के लिए ही साधना की जाती है। शिष्य को अपने गुरु के वचनों पर अटल आस्था थी, इसलिए उस सूत्र को शब्दशः न समझने पर भी रटता रहा, जपता रहा । कथाकार कहते हैं कि मन्द-बुद्धि शिष्य ने मासतुष के अर्थ पर ही चिन्तन प्रारम्भ कर दिया कि जैसे उड़द और उसका छिलका भिन्न है, उसी प्रकार मैं और मेरा शरीर भिन्न हैं। जैसे काला छिलका दूर होने पर उड़द अन्दर से श्वेत निकलता है, वैसे ही काले विकारों के दूर होने पर अन्दर से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है । इस प्रकार शब्द से गलत, किन्तु अर्थ से सत्य उस सूत्र का भावात्मक ध्यान करते हुए एक दिन उस मन्द बुद्धि शिष्य को केवल ज्ञान की वह अमर ज्योति प्राप्त हो गई, जो एक बार प्रज्वलित होकर फिर कभी बुझती नहीं है, जो एक बार प्रकट होकर फिर कभी नष्ट नहीं होती है । आचार्य के दूसरे शिष्य, जो बड़े-बड़े ज्ञानी और पण्डित थे, इस मन्द बुद्धि शिष्य के समक्ष हतप्रतिभ हो गए। केवल ज्ञान की महाप्रभा के समक्ष उनके ज्ञान की प्रभा उसी प्रकार फीकी पड़ गई, जैसे कि सूर्योदय होने पर तारामण्डल की पभा फीकी पड़ जाती है । गुरु को तथा अन्य अनेक शिष्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy