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४८ | अध्यात्म-प्रवचन
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पर भी आत्मा का कुछ बनता बिगड़ता नहीं है। ज्ञान की अल्पता भयंकर नहीं है, उसकी अज्ञान रूप विपरीतता ही भयंकर है । आत्मज्ञान यदि कण भर है, तो वह मन भर भौतिक ज्ञान से भी अधिक श्रेष्ठतर एवं श्रेष्ठतम है । आत्म-साधना में ज्ञान की विपुलता अपेक्षित नहीं है, किन्तु ज्ञान की विशुद्धता ही अपेक्षित है ।
एक आचार्य के अनेक शिष्य थे । उनमें सभी प्रकार के शिष्य थे, कुछ ज्ञानी और कुछ तपस्वी । उनमें एक मन्द-बुद्धि शिष्य भी था । उसकी अवस्था परिपक्व थी। गुरु उसे सिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न करते थे, किन्तु उसे कुछ भी समझ नहीं पड़ती थी। अपनी बुद्धि की मन्दता पर उसे बड़ा दुःख था और इसलिए वह बड़ा खिन्न रहा करता था ।
एक दिन उसे खिन्न एवं उदासीन देखकर गुरु ने पूछा - "तू इतना खिन्न और उदासीन क्यों रहता है ? तू गृहस्थ की ममता छोड़ कर साधना के क्षेत्र में आया है । यहाँ आकर तुझे सर्वथा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहना चाहिए । साधक के जीवन के साथ खिन्नता और उदासीता का मेल नहीं बैठता है, वत्स !"
शिष्य ने कहा - "गुरुदेव ! आपका कथन यथार्थ है । मुझे खिन्न और उदासीन नहीं रहना चाहिए। आपके चरणों में मुझे किसी भी प्रकार का अभाव नहीं है । आपका असीम अनुग्रह ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी थाती है । परन्तु क्या करू, अपनी मन्द बुद्धिता पर मुझे बड़ा दुःख होता है । मैं अधिक शास्त्राध्ययन नहीं कर सकता । मुझे तो थोड़े से में बहुत कुछ आ जाये, आपकी ऐसी कृपा चाहिए ।"
गुरु ने कहा - " चिन्ता मत कर । मैं तुझे ऐसा ही एक छोटा सा सूत्र बतला देता हूँ, उसका तू चिन्तन-मनन कर अवश्य ही तेरी आत्मा का कल्याण होगा । समग्र धर्म और दर्शन की चर्चा का सार इस एक सूत्र में आ जाता है ।"
गुरु ने अपने उस मन्दबुद्धि शिष्य को यह सूत्र बतलाया - "म रुष मा तुष ।" इसका अर्थ है-न किसी के प्रति द्वेष कर और न किसी के प्रति राग कर । अर्थात् साधना का सार निर्बिकल्प समभाव है ।
गुरु ने अनुग्रह करके बहुत ही छोटा, किन्तु अर्थं गम्भीर सूत्र बतला तो दिया, किन्तु वह शिष्य इतना अधिक मन्द-बुद्धि था, कि
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