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________________ रत्नत्रय की साधना | ४७ साधक को स्व-स्वरूप की उपलब्धि हो गई है। स्व-स्वरूप की उपलब्धि होते ही, यह आत्मा अहता और ममता के बन्धनों में बद्ध नहीं रह सकता । जिसे आत्म-बोध एवं चेतना-बोध हो जाता है, वही आत्मा यह निश्चय कर सकता है, कि मैं शरीर नहीं हैं, मैं मन नहीं हूँ, क्योंकि यह सब कुछ भौतिक है एवं पुद्गलमय है। इसके विपरीत मैं चेतन हूँ, आत्मा हूँ तथा मैं अभौतिक हूँ, पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूँ । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और पुद्गल कभी ज्ञान स्वरूप नहीं हो सकता । जबकि आत्मा और पुद्गल में इस प्रकार मूलतः एवं स्वरूपतः विभेद है, तब दोनों को एक मानना अध्यात्म-क्षेत्र में सबसे बड़ा अज्ञान है और यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। यह अज्ञान और मिथ्यात्व सम्यकदर्शन-मूलक सम्यक् ज्ञान से ही दूर हो सकता है,। सम्यगदर्शन और सम्यकज्ञान से हो आत्मा यह निश्चय करता है, कि अनन्त अतीत में भी जब पुद्गल का एक कण मेरा अपना नहीं हो सका, तब अनन्त अनागत में वह मेरा कैसे हो सकेगा, और वर्तमान के क्षण में तो उसके अपना होने की आशा ही कैसे की जा सकती है ? मैं, मैं हूँ और पुद्गल पुद्गल है । आत्मा कभी पुद्गल नहीं हो सकता, और पुद्गल कभी आत्मा नहीं हो सकता। इस प्रकार का बोध-व्यापार ही वस्तुतः सम्यक ज्ञान कहा जाता है। साधक कहीं भी जाए और कहीं पर भी क्यों न रहे, उसके चारों और नाना प्रकार के पदार्थों का जमघट लगा रहता है । पुद्गल की सत्ता को कभी मिटाया नहीं जा सकता। यह कल्पना करना भी दुस्सह है, कि कभी पुद्गल नष्ट हो जाएगा, और जब पुद्गल नष्ट हो जाएगा, तब मेरी मुक्ति हो जाएगी। इस विश्व के कण-कण में अनन्त-अनन्तकाल से पुद्गल की सत्ता रही है और अनन्त भविष्य में भी वह रहेगी। तब भव-बन्धन से भक्ति कैसे मिले ? यह प्रश्न साधक के सामने आकर खड़ा हो जाता है । अध्यात्म-शास्त्र इसका एक ही समाधान देता है, कि पुद्गल के अभाव की चिन्ता मत करो। साधक को केवल इतना ही सोचना और समझना है, कि आत्मा में अनन्तकाल से पूदगल के प्रति जो ममता है, उस ममता को दूर किया जाए और जब पुद्गल की ममता ही दूर हो गई, तब एक पुद्गल तो क्या, अनन्त-अनन्त पुद्गल भी आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। सम्यक् ज्ञान का अर्थ हैआत्मा का ज्ञान, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ज्ञान । आत्म-विज्ञान की उपलब्धि होने के बाद अन्य भौतिक ज्ञान की उपलब्धि न होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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