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________________ ४६ अध्यात्म-प्रवचन भी सुनिश्चित हैं, कि पुण्य से भी मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती । कुछ काल के लिए शुभ साधक की साधना का विश्राम स्थल भले ही बन जाए, किन्तु वह उसका ध्येय नहीं बन सकता। शुभ अशुभ की निवृत्ति के लिए होता है, शुद्धत्व की प्राप्ति के लिए नहीं । अध्यात्म शास्त्र में साधक की साधना का एक मात्र ध्येय है - वीतराग भाव एवं स्वरूप रमणता । अपने स्वरूप में स्व के रमण को ही जैन दर्शन सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्म्यक् चारित्र कहता है । सम्यक् दर्शन क्या वस्तु है और उसका क्या स्वरूप है ? इसकी चर्चा में विस्तार के साथ आगे करूँगा, किन्तु यहाँ पर आप सम्यक् दर्शन का इतना ही अर्थ समझ लें कि अपने आत्म-स्वरूप की प्रतीति, आत्म-स्वरूप का विश्वास और आत्म स्वरूप पर आस्था होना ही सम्यक् दर्शन है । अध्यात्मवादी दर्शन यह कहता है, कि आपको ईश्वर की सत्ता पर आस्था हो या न हो, परन्तु स्वयं अपनी आत्मा की सत्ता पर आस्था होना सबसे बड़ी बात है । मैं समझता हूँ कि जिसको अपनी आत्म-सत्ता पर विश्वास है, उसे ही परमात्म-सत्ता पर भी विश्वास हो सकता है । क्योंकि जो आत्मवादी होता है, वही कर्मवादी भी हो सकता है, और जो कर्मवादी होता है, वही लोकवादी भी हो सकता है । परन्तु जिसको अपनी आत्मा की सत्ता पर ही आस्था नहीं है, उसे कभी भी कर्म पर विश्वास नहीं हो सकता, और जिसका कर्म पर विश्वास नहीं है उसका लोक परलोक पर भी विश्वास नहीं हो सकता । मोक्ष पर विश्वास तो होगा ही कहाँ से ? अस्तु, सच्चा आत्मवादी ही मोक्ष की साधना कर सकता है । अपने मूल स्वरूप की प्रतीति ही सबसे मुख्य बात है । जिसने अपनी मूल सत्ता पर आस्था और श्रद्धा नहीं की, वह अन्य किसी पर भी सम्यक् विश्वास नहीं कर सकता । "मैं हूँ" इस पर पूर्ण प्रतीति के साथ विश्वास करो, क्योंकि “मैं” की सत्ता की शुद्ध आस्था ही यथार्थ में सम्यक् दर्शन है । सम्यग्-दर्शन आत्म-सत्ता की आस्था है । सम्यक् दर्शन-आत्मा का स्वरूप-विषयक एक दृढ़ निश्चय है । मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ ? मैं कैसा हूँ ? इसका अन्तिम निर्णय एवं निश्चय ही सम्यक् दर्शन है । संसार में अनन्त पदार्थ हैं, अनन्त चेतन और अनन्त जड़ हैं। जड़ और चेतन में भेद - विज्ञान करना, यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक उद्देश्य है । स्व और पर का, आत्मा और अनात्मा का, चैतन्य और जड़ का जब तक भेद-विज्ञान नहीं होगा, तब तक यह नहीं समझा जा सकता कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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