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रत्नत्रय की साधना | ४५ जाए। चित् का कार्य चित् में ही हो सकता है और वह चिद्रूप ही हो सकता है।
मैं आपसे मोक्ष और उसके मार्ग की बात कह रहा था। मैंने आपको यह बतलाने का प्रयत्न किया था कि मोक्ष और मोक्ष का साधन धर्म आत्मा में ही रहते हैं, कहीं बाहर नहीं। जहाँ कहीं आगमों में लोकाग्र भाग में मोक्ष का स्थानत्वेन उल्लेख है, वह व्यवहार दृष्टि में औपचारिक कथन है, नैश्चयिक नहीं। तर्क द्वारा प्राप्त निर्णय ही मोक्ष सम्बन्धी स्थान और स्थिति की गुत्थी को सुलझा सकता है । जब आत्मस्वरूप भूत मोक्ष का निवास आत्मा के अन्दर ही है, तब उसका साधन अर्थात् कारण भी आत्मा के अन्दर ही होगा। कभी यह नहीं हो सकता, कि आत्मा कहीं रहे, उसका मोक्ष कहीं रहे, और उसका मार्ग एवं उपाय कहीं अन्यत्र रहे।
चेतन की क्रियाओं का आधार चेतन ही हो सकता है, जिस प्रकार जड़ की क्रियाओं का आधार जड़ तत्व होता है। शरीर की क्रियाओं एवं चेष्टाओं को जैन-दर्शन आस्रव की कोटि में डाल देता है, क्योंकि वे जड़ की क्रियाएं हैं, आत्मा के निज स्वरूप की क्रियाएँ नहीं है । जो आत्मा के निज स्वरूप की क्रियाएँ होती हैं, वे ही मोक्ष मार्ग बनती हैं । इसलिए आत्मा से भिन्न शरीर आदि की जड़ क्रियाएँ मोक्ष प्रदान नहीं कर सकतीं, जब तक कि साधना के मूल में शुद्धोपयोग एवं शुद्ध ज्ञान चेतना की क्रियाशीलता न हो । अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि जब मोक्ष में शरीर ही साथ नहीं जाता और वह यहीं रह जाता है, तब उसका वेश आदि, जो एक बाह्य, तत्त्व है, एक जड़ तत्त्व है, मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ? ये वेश आदि बाह्य उपकरण शरीराश्रित होते हैं, इसलिए निश्चय दृष्टि से वे मोक्ष के अंग नहीं बन सकते । और तो क्या, बाह्य तप भी शरीराश्रित होने से साक्षात् मोक्ष रूप में स्वीकृत नहीं है। हाँ, व्यवहार नय से यदि उन्हें मोक्ष का अंग माना जाए, तो किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। निश्चय दृष्टि में तो सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये ही मोक्ष के कारण हैं और ये ही मोक्ष के अंग हैं। अशुभ उपयोग से हटकर शुभ उपयोग में और अन्ततः शुभ उपयोग से भी हटकर आत्मा जब शुद्ध उपयोग में स्थिर हो जाएगा, तभी वस्तुतः उसका मोक्ष हो सकेगा । यह निश्चित है, कि अशुभ और शुभ दोनों ही द्वारों को बन्द करना पड़ेगा । यदि पाप से मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती, तो यह
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