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________________ ५२ | अध्यात्म-प्रवचन चाहिए कि अब अनन्त गगन में सूर्य की सत्ता नहीं रही। सूर्य की सत्ता तो है, किन्तु बादलों के कारण उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती । परन्तु जैसे ही सूर्य पर छाने वाले बादल हटने लगते हैं, तो सूर्य का प्रकाश और आतप एक साथ गगन मण्डल और भूमण्डल पर फैल जाता है। ऐसा मत समझिए कि पहले प्रकाश आता है फिर आतप आता है अथवा पहले आतप आता है फिर प्रकाश आता है। दोनों एक साथ ही प्रकट होते हैं । इसी प्रकार ज्यों ही सम्यक् दर्शन होता है, त्यों ही-तत्काल ही सम्यक् ज्ञान हो जाता है। उन दोनों के प्रकट होने में क्षण मात्र का भी अन्तर नहीं रह पाता। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान चतुर्थ गुणस्थान में प्रकट हो जाते हैं। किन्तु सम्यक् चारित्र की उपलब्धि पाँचवें गुण स्थान से प्रारम्भ होती है। वैसे तो अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षयोपशमादि की दृष्टि से मोह-मोक्ष होनता एवं स्वरूप-रमणता रूप चारित्र अंशतः सम्यग् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञान के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन की परिपूर्णता अधिकतम सातवें गुणस्थान तक हो जाती है और ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुण स्थान में होती है तथा चारित्र की परिपूर्णता तेरहवें गुण स्थान के अन्त में एवं शैलेशी अवस्था रूप चौदहवें गुण स्थान में होती है । जैन-दर्शन के अनुसार उक्त तीनों साधनों की परिपूर्णता का नाम ही मोक्ष एवं मुक्ति है । यही अध्यात्म-जीवन का चरम विकास है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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