SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० | अध्यात्म-प्रवचन 'पद्मोत्तर राजा की विशाल सेना तितर-बितर हो गई, सैनिक अपने रक्षण के लिए इधर-उधर भागने लगे। पद्मोत्तर राजा भयभीत हो गया कि जिसके शंख और धनुष की ध्वनि में इतनी शक्ति है, वह स्वयं कितना महाबली होगा। पाँच पाण्डवों से मैं लड़ सकता था, किन्तु श्रीकृष्ण से लड़ना मेरे वश की बात नहीं है । पद्मोत्तर राजा ने पराजय स्वीकार कर ली, द्रौपदी को लौटा कर क्षमा माँगी और भविष्य के लिए यह आश्वासन दिया, कि वह फिर कभी ऐसा अनार्य आचरण नहीं करेगा । पाँचों पाण्डव द्रौपदी को पाकर तो प्रसन्न थे, परन्तु अपनी घोर पराजय पर लज्जित भी थे। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से कहा कि “अन्तर की जैसी आवाज होती है, अन्ततः वैसा ही परिणाम निकलता है । तुमने तो युद्ध से पूर्व ही अपने अन्तर्हृदय में अपने विनाश एवं पराजय का संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह कहना, कि आज के युद्ध में या तो हम नहीं, या पद्मोत्तर नहीं, स्पष्ट ही तुम्हारे मन की दुर्बलता को प्रतिबिम्बित करता था। सर्वप्रथम 'हम नहीं यह क्यों कहा?" ___ कथा का सारांश है कि मनुष्य की जय और पराजय बाहर में तो बाद में होती है, पहले उसके अपने मन में ही हो जाती है। अपनी शक्ति का अविश्वास ही मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी एवं भयंकर पराजय है । “मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।" जो मन में हार गया, वह जीवन-क्षेत्र में भी हार जाता है और जो मन में जीत जाता है, वह बाहर भी विजय पा लेता है। इसलिए मन की हीनता एवं दीनता ही जीवन का सबसे भयंकर पतन है। जीवन-क्षेत्र में लड़ने वाले यदि अपने अस्तित्व से स्वयं ही इनकार कर देते हैं, तो वे कुछ भी नहीं कर सकते। लोक-जीवन में जो स्थिति है, वही स्थिति आध्यात्मिक क्षेत्र में भी है । अनादि काल से हम अपने आपको तुच्छ, हीन एवं दीन समझते आए हैं। कष्ट एवं संकट आने पर हम विलाप करते रहे हैं, किन्तु कभी भी धैर्य के साथ उनका मुकाबला करने के लिए दृढ़ संकल्प नहीं किया। हम होनी और भवितव्यता की बातों में इतने उलझ गए, कि अपने पुरुषार्थ को ही भूल बैठे । आत्मा एवं चेतन अपनी अनन्त शक्ति को भूल कर दीन, हीन एवं अनाथ सा हो गया। अपने भाग्य का रोना रोते रहना और अपनी भवितव्यता की अंधेरी गलियों में चक्कर काटना, अनन्त शक्ति-सम्पन्न चेतन का दुर्भाग्य ही है । आत्मा यह नहीं सोचता, कि जिस होनी और भवितव्यता के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy