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सम्यक् दर्शन की महिमा | २०१ मैं रो रहा हूँ, उस भवितव्यता का निर्माण भी तो मैंने ही किया है । भवितव्यता एवं भाग्य का निर्माता, ईश्वर, मैं स्वयं ही तो है। अपने पुरुषार्थ से ही मै भाग्य एवं भवितव्यता के बन्द द्वार खोल सकता है। जब द्वार स्वयं मैंने ही बन्द किया है, तब खोलने वाला भी मैं स्वयं ही हैं। मैं स्वयं ही बन्द हआ है और स्वयं ही अपने बल पर मुक्त भो हो सकुंगा । जब आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप की उपलब्धि कर लेता है, है, तभी इस प्रकार के दिव्य विचार उसके मन में उठते हैं। जब आत्मा के दिव्य स्वरूप की अनुभूति प्राप्त होती है, तभी उसमें आत्मशक्ति की अदम्य ज्योति जगती है । सम्यक् दर्शन सिखाता है, कि तू दीन, हीन भिखारी नहीं है, बल्कि तू चैतन्य सम्राट् है, अपने आपका शाहंशाह है और अपनी जिन्दगी का बादशाह भी तू स्वयं ही है। फिर अपनी ही नगरी में तू क्यों पराजित होता है और क्यों भटकता है ! तेरा अज्ञान और मिथ्यात्व भाव ही तुझे भटकाने वाला है। अतः सम्यक दर्शन के दिव्य आलोक से, अपने इस भव-भ्रमण कराने वाले मिथ्यात्व भाव एवं अज्ञान भाव के अन्धकार से तू मुक्ति प्राप्त कर। __ जैन-दर्शन दीन से दीन, हीन से हीन, तुच्छ से तुच्छ और पतित से पतित पामर प्राणी में भी आत्मा की दिव्य ज्योति का एवं आत्म भाव के दिव्य आलोक का दर्शन कराता है। जैन-दर्शन की निश्चय दृष्टि के अनुसार संसार का दीन से दोन मनुष्य भी अपने मूल स्वरूप में विशुद्ध है । शुद्ध निश्चय नय से संसार की समस्त आत्माएं विशुद्ध हैं । एक भी आत्मा संसार में ऐसा नहीं है, जो अपने पुरुषार्थ के बल पर अपनी आत्मशक्ति के विकास से तथा अपने सम्यक् दर्शन के प्रभाव से, विकास करके महान न हो सकता हो । अध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार एक चाण्डाल की आत्मा में तथा एक ब्राह्मण की आत्मा में तत्वतः किसी प्रकार का विभेद नहीं हो सकता। आत्म स्वरूप की दृष्टि से विश्व की समग्र आत्माएँ समान ही हैं । अन्तर केवल इतना ही है, कि जिसकी आत्मा अज्ञान-भाव में प्रसुप्त है, उस आत्मा के जीवन का प्रवाह अधोमुखी बन जाता है और जो आत्मा अपने अज्ञानभाव के बन्धन को तोड़ चुका है, उस आत्मा के जीवन का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी बन जाता है । आपने हरिकेशी मुनि के जीवन का वर्णन सुना होगा अथवा कहीं पर पढ़ा होगा? हरिकेशी का जन्म एक चाण्डाल कुल में हुआ, जहाँ जीवन-विकास का एक भी साधन उसे उपलब्ध नहीं हो सका। शरीर की सुन्दरता और सुषमा भी उसे
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