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________________ २०२ | अध्यात्म-प्रवचन प्राप्त नहीं हो सकी । उसके शरीर का रूप कोयले जैसा काला, भयंकर एवं डरावना था । जिधर से भी वह निकल जाता, सब लोग उसका मजाक उड़ाते और उसे छेड़ते । चारों ओर से उसे धिक्कार-ही-धिक्कार मिल रहा था। अपने जीवन की इस अधोदशा को देखकर वह व्याकुल हो गया था। हरिकेशी को मनुष्य-जीवन तो अवश्य मिला, किन्तु मनुष्य-जीवन के सुख और सन्मान एक क्षण के लिए भी कभी उसे मिले नहीं । एक मनुष्य के जीवन की पतित-से-पतित एवं तुच्छ से तुच्छ जो अवस्था हो सकती है, हरिकेशी ने जीवन की वही अवस्था एवं दशा थी । परन्तु जैन-दर्शन ने इस हरिकेशी चाण्डाल के गिरे-से-गिरे जीवन में भी विशुद्ध आत्मा का दर्शन किया। उसकी जीवन दशा का वर्णन मैं क्या करूं ? उसकी दशा एक कुत्ते से भी हीन एवं बुरी थी। जब वह अपने जीवन के तिरस्कार को सहन नहीं कर सका, तब वह नदी की वेगवती धारा में डूबकर मरने के लिए अपने घर से निकल पड़ा। अपने जीवन से निराश हरिकेशी चाण्डाल अपने जीवन का अन्त करने के लिए जब नदी में छलांग लगाने वाला ही था कि तट पर एक निकंज में विराजित शान्त एवं दान्त, योगी, तपस्वी एक जैन भिक्षु ने कहा-"वत्स ! जरा ठहरो, यह क्या कर रहे हो ? दुर्लभ मानव जीवन क्या इस तरह व्यर्थ ही नदी में ड्रबो देने के लिए है।" हरिकेशी ने यह सुना तो स्तब्ध रह गया । जीवन में पहली बार उसे इतना मृदु और शान्त वचन सुनने को मिला था। उसने मुनि के निकट जाकर कहा, "भंते ! मैं एक चाण्डाल पुत्र है। मैं अपने प्रति किए गए तिरस्कार से तंग आकर नदी में डूबकर आत्मघात करने के लिए यहां आया हूँ। चाण्डाल हूँ, केवल इसीलिए मेरे लिए कहीं स्थान नहीं है । सव ओर से तंग आकर मैंने इस जीवन का अन्त करने का संकल्प कर लिया है।" तपस्वी मुनि ने गम्भीर होकर आश्वासन की भाषा में उससे कहा-"वत्स, तेरे स्वयं के कर्म ने ही तुझे चाण्डाल कुल में पैदा किया है, किन्तु तेरे इस भौतिक शरीर के भीतर जो एक दिव्य आत्मा है, वह चाण्डाल नहीं है । दुनिया भले ही किसी को चाण्डाल समझे, परन्तु आत्मा किसी का चाण्डाल नहीं होता। हरिकेशी ! तू शरीर नहीं है, इस शरीर के भीतर जो एक दिव्य चिद्रूप है, वही तू है । तू स्वयं अपने को चाण्डाल क्यों समझता है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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