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________________ सम्यक् दर्शन की महिमा | २०३ तपस्वी की इस दिव्य वाणी को सुनकर हरिकेशी की प्रसुप्त आत्मा जाग उठी और उसने मुनि बनकर अपने को अध्यात्म-साधना में लगा दिया । हरिकेशी ने अपने घोर तप और विशुद्ध संयम की साधना के आधार पर पूज्यत्व भाव प्राप्त कर लिया। फिर मनुष्य तो क्या, स्वर्ग के देव भी आकर उसके चरणों में नतमस्तक होने लगे । यह तभी हुआ, जब कि हरिकेशी ने अपने आत्म-स्वरूप की उपलब्धि कर ली । आत्म-स्वरूप की उपलब्धि हो जाने पर हीन से हीन व्यक्ति भी महान बन जाता है । एक दिन का भूला हुआ ओर पापात्मा हरिकेशी चाण्डाल अध्यात्म-भाव की साधना से पूज्य बन गया, फिर वे ही लोग श्रद्धा एवं भक्ति के साथ उसका आदर एवं सत्कार करने लगे, जो कभी एक दिन उसे देखना भी पसन्द नहीं करते थे, उसके शरीर की छाया तक से घृणा करते थे। आज वे ही उसका दर्शन पाकर प्रसन्न होने लगे । यह सब आत्मा की चैतन्यशक्ति का चमत्कार है और आत्मा के दिव्य गुण सम्यक् दर्शन का ही एक मात्र प्रभाव है। आपने कुन्ती के जीवन का वर्णन सुना होगा। कुन्ती कौन थी ? उसका सम्पूर्ण जीवन-परिचय देने की यहाँ मुझे आवश्यकता नहीं है, संक्षेप में कुन्ती के जीवन का इतना परिचय ही पर्याप्त होगा, कि वह भारत के धुरन्धर वीर पांच पांडवों की माता थी। कुन्ती की गणना भारत की सुप्रसिद्ध सोलह सतियों में की जाती है। परन्तु प्रारम्भ में कुन्ती का जीवन कैसा था, इस बात का वहुत से लोगों को पता नहीं है । कुन्ती अपने यौवन काल में बड़ी सुन्दर थी, उसके शरीर के कणकण से लावण्य और सौन्दर्य की आभा फूट रही थी। जो कोई भी व्यक्ति एक बार कुन्ती के रूप एवं सुषमा को देख लेता था, वह मुग्ध हो जाता था। जिस किसी ने भी एक बार कुन्ती की छवि को देख लिया वह सब कुछ भूल जाता था, किन्तु याद रखिए, रूप एवं यौवन सदा अन्धा होता है । कुन्ती भी इस सिद्धांत का अपवाद न थी। एक दिन वासना में अन्धी होकर वह राजा पाण्डु के प्रेम-पाश में फँस गई, और कन्यावस्था में ही उसने कर्ण को जन्म दे डाला । कुन्ती के जीवन का यह अधः पतन था । वह वासना में इतनी अन्धी बनी, कि अपने पवित्र जीवन का भाव और अपने कुल की मर्यादा और गौरव का भी उसे भान नहीं रहा । कुन्ती के जीवन की यह एक भयंकर बिडम्बना थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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