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________________ २३६ / अध्यात्म-प्रवचन प्रश्न हो सकता है, कि जब नियति एवं भवितव्यता ही सब कुछ है, तब पुरुषार्थ करने की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? इस प्रश्न के उत्तर में मैं यहाँ पर इतना ही कहना चाहता हूँ, कि प्रत्येक आत्मा का पुरुषार्थ भी उसकी नियति के आधार पर ही बनता और बिगड़ता रहता है । जैसी नियति वैसा ही पुरुषार्थ होता है। मैं आपसे एक बहुत ही ऊंचे सिद्धांत की बात कह रहा था और वह सिद्धांत है, भवितव्यता एवं नियतिवाद का। नियतिवाद के सिद्धांत को स्वीकार करने पर साधना का अपना क्या महत्व रह जाता है और जब साधना ही नहीं रही, तब फिर पंथ और सम्प्रदाय के यह बाहरी चोगे भी कब तक रह सकेंगे? शासन की व्यवस्था और शासन को मर्यादा कैसे अक्षुण्ण रह सकेगी? इस प्रकार के अनेक प्रश्न नियतिवाद के विरोध में उठाए जाते हैं। परन्तु सत्य यह है, कि नियतिवाद के विरोध में जितने भी प्रश्न उठे हैं, और जितने भी अधिक तके उपस्थित किए गए हैं, नियतिवाद उतना ही अधिक पल्लवित, विकसित और बलिष्ठ बनता रहा है। नियतिवाद के तर्कों को तोड़ा नहीं जा सकता है। भले ही हम अपने सम्प्रदाय और पंथ की किलेबन्दी एवं घेरेबन्दी की रक्षा के लिए उसकी उपेक्षा करदें। नियतिवाद एक वह सिद्धांत है जो आत्मा को निर्बल नहीं बलवान बनाता है । कल्पना कीजिए, एक छात्र बार-बार परीक्षा देता है और बार-बार असफल हो जाता है। उसने पुरुपार्थ करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी, जो कुछ और जितना कुछ वह अपनी उपलब्धि के लिए कर सकता था, उसने किया, और ईमानदारी से किया, फिर भी उसे सफलता क्यों नहीं मिली ? यदि प्रयत्न से ही, यदि पुरुषार्थ से ही समस्या का हल हो सकता होता, तो कभी का हो गया होता। अपनी गोद के लाल को मृत्यु के मुंह में जाते हुए देखकर प्रत्येक मातापिता उसे बचाने का प्रयत्न एवं पुरुषार्थ अपनी शक्ति से अधिक करते हैं, फिर भी वह उसकी रक्षा नहीं कर सकते । यदि मृत्यु से जीवन का रक्षण, प्रयत्नसाध्य होता, तो आज संसार की स्थिति ही भिन्न प्रकार की होती। इसलिए मैं कहता है, कि पुरुषार्थ की अपनी एक सीमा है, और प्रयत्न की अपनी एक मर्यादा है। जब किसी नारी की नियति में उसके भाल का सिन्दूर मिटने वाला ही है, तब हजार प्रयत्न करने पर भी वह अपने मस्तक के सिन्दूर को अक्षुण्ण नहीं रख सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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