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उपादान और निमित्त | २३५ को स्वीकार न किया जाए, तो सभी आत्माएँ एक जगह से और एक साथ तथा एक तरह से ही मोक्ष प्राप्त करें, परन्तु ऐसा होता नहीं है, हो सकता भी नहीं है, क्योंकि सबकी नियति और भवितव्यता अलगअलग है । वस्तु स्थिति यह है कि सभी आत्माओं का मूल गुण भले ही एक हो, परन्तु उन सब की बाह्य स्थिति नियति के आधार पर अलग-अलग ही होगी । क्योंकि प्रत्येक आत्मा के गुण एवं पर्याय का विकास एवं ह्रास उसकी भवितव्यता एवं नियति के आधार पर ही होता है । इस नियति एवं भवितव्यता के आधार पर ही किसी आत्मा को बाह्य निमित्त मिलता है, और जल्दी मिल जाता है तथा किसी आत्मा को देर में मिल पाता है और ऐसा भी हो सकता है, न भी मिले । बाह्य निमित्त का मिलना और न मिलना आकस्मिक नहीं होता, उसका भी एक कारण होता है और वह कारण है-उस आत्मा की अपनी नियति एवं भवितव्यता ।
मैं आपसे कह रहा था कि जैन दर्शन केवल यथार्थवादी दर्शन नही है, वह आदर्शवादी भी है और वह केवल आदर्शवादी ही नहीं, यथार्थवादी भी है । आदर्श अपने आप में बुरा नहीं होता, किन्तु यह भी निश्चित है कि जीवन के यथार्थ दृष्टिकोण का भी बहिष्कार एवं तिरस्कार नहीं किया जा सकता । जैन दर्शन आदर्श मूलक यथार्थवादी दर्शन है । वह इधर-उधर भटकने वाला नहीं है, बल्कि अपना एक लक्ष्य बनाकर दृढ़ता के साथ उस पर चलने वाला है । उसकी जीवन यात्रा में उसका प्रत्येक कदम विवेकपूर्वक हो उठता है । उसके आगे बढ़ने में भी विवेक रहता है और उसके पीछे हटने में भी विवेक रहता है । जीवन का हर कदम जहाँ भी उठता है और जहाँ भी पड़ता है, यह निश्चित है कि वह अकारण नहीं होता । परिवर्तन एवं विकास में भी वह अपना सन्तुलन नहीं खोता । उसके जीवन का गमन चाहे
वाही हो और चाहे अधोवाही हो, किन्तु उसके पीछे किसी न किसी प्रकार का कारण अवश्य रहता है और वह कारण अन्य कुछ नहीं, नियति एवं भवितव्यता ही होता है। जिस जीव की जैसी नियति और भवितव्यता होती है, उसको निमित्त भी वैसा ही मिलता है और उसके जीवन की परिणति भी वैसी ही होती है। जंसी जिसकी निर्यात होती है, वैसी ही उसकी परिणति भी होती है। जिसकी जैसी भवितव्यता होती है उसका काम भी वैसा ही होता चला जाता है।
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