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२३४ ) अध्यात्म-प्रवचन आचार भी अलग होता है, इसी आधार पर उनके कर्म-बाँधने की प्रक्रिया भी अलग-अलग ही होती है। माता और पिता एक होने पर भी तथा घर का वातावरण समान होने पर भी इतनी विभिन्नता क्यों हो जाती है ? यह एक सहज प्रश्न है । बात यह है कि उनका उद्गम तथा वातावरण एक जैसा होने पर भी उनकी नियति एवं भवितव्यता भिन्न होने से उनकी गति और मति में भिन्नता रहती है। यह एक बड़े महत्व का प्रश्न है, जिस पर गम्भीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए । एक ही माता-पिता की संतान में जब गति-भेद और मति-भेद देखा जाता है तब उसका मूल आधार नियति एवं भवितव्यता के अतिरिक्त अन्य क्या हो सकता है ? यद्यपि यह ठीक है कि रागद्वेष आदि विकल्पों की विभिन्नता के कारण कर्मबन्ध की विभिन्नता होती है और उसके फलस्वरूप कर्मफल की विभिन्नता होती है, परन्तु इन सब विभिन्नताओं के मूल में भी नियति का हेतु है। प्रत्येक आत्मा में कुछ सामान्य धर्म होने पर भी, उनमें अपनी एक विशेषता होती है। उदाहरण के लिए तीर्थंकर के जीवन को लीजिए । सभी तीर्थंकरों में तीर्थंकर नाम कर्म एक जैसा होता है, उसमें किसी प्रकार का भेद अथवा ऊंचा-नीचापन नहीं होता। कोई तीर्थकर बढ़िया हो और कोई तीर्थंकर घटिया हो, इस प्रकार का वचन-व्यवहार सर्वथा असंगत है। तीर्थकर तीर्थंकर रूप से समान होते हैं; इस तथ्य में शंका के लिए जरा भी अवकाश नहीं है, परन्तु जब तीर्थंकरों के जीवन का हम निरीक्षण करते हैं, तब उनमें भी कुछ अन्तर अवश्य नजर आता है । सबकी कृति एवं स्थिति एक जैसो कहाँ होती है ? कोई अल्प तपस्या करता है और कोई दीर्घ तपस्या करता है। उनकी प्ररूपणाओं में भी भेद देखा जाता है। उनके प्रभाव के विस्तार में भी अन्तर देखा जाता है। किसी के प्रभाव का विस्तार व्यापक है, तो किसी का संकुचित है । जैन परम्परा में मान्य चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थकर ही अधिक प्रसिद्ध हैं-ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर । इन चारों में भी दो ही प्रसिद्ध हैंपार्श्वनाथ और महावीर । प्रश्न होता है, सभी तीर्थंकरों का तीर्थंकर नामकर्म समान होने पर भी इतना भेद और अन्तर क्यों पड़ गया ? उक्त प्रश्न का समाधान यही हो सकता है कि प्रत्येक तीर्थंकर में तीर्थकर नामकर्म समान होने पर भी प्रत्येक तीर्थंकर की नियति एव . भवितव्यता भिन्न-भिन्न ही होती है। यदि नियति एवं भवितव्यता
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