SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठ अंग और सात भय | ३४६ अभावग्रस्तता के कारण अथवा अपनी निर्धनता के कारण, अपनी संस्कृति और अपने धर्म से दूर हट रहे हैं, उनकी समस्याओं को सुलझाकर और उनके मानसिक विकल्पों को दूर कर पुनः धर्म के पथ पर उन्हें लगा देना ही स्थिरीकरण का अभिप्राय है। वात्सल्य का अर्थ है-प्रेम और स्नेह । यह दर्शनाचार का सातवां अंग है। जिस प्रकार माता-पिता अपनी संतान पर वात्सल्यभाव रखते हैं, प्रेम और स्नेह के साथ उनका लालन-पालन करते हैं, उसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी जी व्यक्ति इस उदात्तभावना को लेकर चलता है और अपने सह धर्मी के प्रति निर्मल एवं निष्काम वात्सल्यभाव रखता है, वह व्यक्ति धर्मसंघ में सबसे अधिक आदरणीय है। वात्सल्य का अर्थ है-समाज-भावना और परिवार-भावना। जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुटुम्ब पर स्नेह और प्रेम रखता है, उसी प्रकार अपनी समाज के हर व्यक्ति पर प्रेम और स्नेह रखना ही, वात्सल्य भाव है। स्वधर्मी के प्रति किया जाने वाला प्रेम वस्तुतः धर्म-प्रेम का ही एक अंग माना जाता है। दर्शनाचार का यह सातवाँ अंग वात्सल्य, संघ और समाज की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है । ____दर्शनाचार का आठवाँ अंग है-प्रभावना। प्रभावना का अर्थ है-महिमा और कोति । जिस कार्य के करने से अपने धर्म और अपनी संस्कृति की महिमा का प्रसार हो, और कीर्ति का प्रचार हो, वह प्रभावना है । धर्म को प्रभावना का कोई एक मार्ग और कोई एक पद्धति नहीं हो सकती । ज्ञान का प्रचार करने से, सदाचार को पवित्र रखने से तथा लोगों के साथ मधुर व्यवहार करने से धर्म की महिमा बढ़ती है। स्वयं शुद्ध आचार का पालन करना और दूसरों को शुद्ध आचार का पालन करने के लिए प्रेरित करना, यह भी प्रभावना का एक अंग है। त्याग, तपस्या और संघ-सेवा भी प्रभावना का एक मुख्य अंग माना जाता है। ___ मैं आपसे यह कह रहा था, कि जिस व्यक्ति को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है, उस व्यक्ति का व्यवहार और आचरण कितना सुन्दर हो जाता है ? वह व्यक्ति दूसरे के लिए केवल धर्म प्रेरणा का निमित्त ही नहीं बनता, बल्कि स्वयं भी उस दिव्य सिद्धान्त को अपने जीवन-धरातल पर उतारता है, जो उसने अपनी अध्यात्म साधना के द्वारा प्राप्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy