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________________ ३५० | अध्यात्म प्रवचन सम्यक् दर्शन के इन आठ अंगों के आचरण से यह अभिव्यक्त हो जाता है, कि इस व्यक्ति ने सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है। यह अंग, जीवन में सन्तुष्ट एवं सूखी रहने की कला सिखाते हैं, फलतः संसार में सुख की अभिवृद्धि भी करते हैं। इसी आधार पर इन्हें कल्याण-मार्ग का अंग कहा जाता है। उक्त आठ अंगों का आचरण इस तथ्य को प्रमाणित करता है, कि सत्य की उपलब्धि हो जाने पर साधक का जीवन, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अभिशाप नहीं, बल्कि एक सुन्दर वरदान होता है। सम्यक दृष्टि आत्मा के जीवन में अन्य क्या विशेषता होती है, जिसके आधार पर यह जाना जा सके, कि यह सम्यक दृष्टि है। सम्यक् दृष्टि के आचार विचार के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है, फिर भी एक बात शेष रह जाती है, जिसका कथन और प्रतिपादन करना अत्यन्त आवश्यक है। सम्यक दष्टि के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है-निर्भयता। जहां भय है, वहाँ धर्म नहीं रह सकता, संस्कृति नहीं रह सकती है । जहाँ भय है, वहाँ सत्य नहीं रह सकता और जहाँ सत्य है, वहाँ भय नहीं ठहर सकता। भय, मन की एक कमजोरी है, भय आत्मा की एक दुर्बलता है । भय एक अन्धकार है। जहाँ भय का अन्धकार रहता है, वहाँ किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना सफल नहीं हो सकती । शास्त्र में कहा गया है, कि जो व्यक्ति सत्य की साधना करना चाहता है और जो व्यक्ति सत्य की उपासना करना चाहता है, उसके लिए यह आवश्यक है, कि वह अपने मन के भय को दूर कर दे । जो व्यक्ति कदम-कदम पर भयभीत होता है, वह धर्म की साधना कैसे कर सकता है ? धर्म की आराधना के लिए निर्भयता की आवश्यकता है। निर्भयता का अर्थ है-मन की वह वृत्ति, जिससे साधक में एक ऐसी अद्भुत शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो विकट संकट के क्षण में भी उस साधक को धर्म में स्थिर रखती है । जब तक यह शक्ति साधक को नहीं मिलती, तब तक वह अपने साधना-पथ पर न अग्रसर हो सकता है और न उसे अपनी धर्म साधना का दिव्य फल ही मिल सकता है। सम्यक् दृष्टि के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए शास्त्र में कहा गया है, कि सम्यक् दृष्टि आत्मा को सात प्रकार का भय नहीं होता। वे सात भय कौन से हैं, इसके सम्बन्ध में कहा गया है, कि इहलोकभय, परलोकभय, वेदना-भय, मरण-भय, आदान-भय, अपयश-भय और अकस्माद्भय । इन सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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