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अध्यात्म साधना | ६६ मिल सकेगा। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं समझना चाहिए, कि उनमें अग्नि की शक्ति नहीं है। क्योंकि उसे रगड़ने पर प्रकाश जगमगा उठता है। उसके बाद उस जागृत शक्ति से आप जो कुछ काम लेना चाहें, ले सकते हैं । याद रखिए, इस तथ्य को कभी मत भूलिए, कि उसकी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए और उसमें से प्रकाश प्राप्त करने के लिए, उसे रगड़ना अवश्य ही पड़ेगा । यदि आप उसे रगड़ते नहीं हैं, तो उस दियासलाई का अपने आप में कोई उपयोग और लाभ नहीं है।
जिस भौतिक सिद्धान्त की चर्चा मैंने ऊपर की है, वही सिद्धान्त अध्यात्म-क्षेत्र में भी लागू होता है। सिद्धान्त एक ही है, किन्तु उसे लागू करने की विधि भिन्न-भिन्न है।
एक साधक जब अंध्यात्म साधना पर अग्रसर होता है, तब पहले वह अपने जीवन को गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है और कहता है कि-"भगवन् ! मैं अन्धकार में डूबा हूँ, मुझे प्रकाश चाहिए । मैं इधर-उधर भटक रहा हूँ, मुझे मार्ग चाहिए। मैं आपका शिष्य हूँ, आप मुझे शिक्षा देकर सन्मार्ग पर लगाइए।" गुरु, शिष्य के इस विनय को सुनकर उसे जीवन का सही मार्ग बताता है और जीवनविकास का एक सूत्र उसे सिखा देता है।
गुरु शिष्य से कहता है-"लो यह विचार सूत्र है, इसका चिन्तन करो।" यदि शिष्य यह कहता है कि "इस अल्पाक्षर क्षीणकाय सूत्र में क्या रखा है, जो मैं इसका रटन करूं। मुझे इसमें कुछ भी तो नजर नहीं आता । जिस तत्त्व की मुझे खोज है, वह तत्त्व इसमें कहाँ है ? जिस प्रकाश की मुझे अभिलाषा है, वह प्रकाश इसमें कहाँ है ?"
गुरु उत्तर में कहते हैं-"चुप रहो, जैसा मैं कहता हूँ, चिन्तन करते चलो। एक दिन अवश्य ही इसमें से तत्त्व ज्ञान का स्फुलिंग प्रकट होगा । जीवन का कण-कण जगमगा उठेगा, अन्धकार का कहीं चिन्ह भी शेष नही रहेगा।" ।
शिष्य पुनः प्रश्न करता है-"गुरुदेव ! मैं चिन्तत तो अवश्य करूगा, आपके आदेश का शिरसा और मनसा पालन करूंगा, परन्त कृपा करके यह तो बताइए, कि कब तक ऐसा करता रहूँ ? इसमें से सिद्धि का नवनीत मुझे कब मिलेगा? उसकी कोई सीमा अवश्य होनी चाहिए।"
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