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६८ | अध्यात्म-प्रवचन हाथ डालकर मक्खन निकालना चाहें, तो वह कैसे निकल सकेगा ? दूध में हाथ डालकर मक्खन निकालने की चेष्टा एक निरर्थक चेष्टा है ? उसमें से मक्खन तो तभी निकल सकता है, जबकि उसका मंथन किया जाए। कुछ लोग धर्म और दर्शन की गहराई में पहुंचे बिना ही, उसका सार निकालने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं। कोई भी नास्तिक विचार का व्यक्ति धर्म और दर्शन की अध्यात्म-साधना की गहराई में में पहुँचे बिना ही, जब उसमें से सार निकालने की चेष्टा करता है, उस स्थिति में यदि उसमें से सार नहीं निकलता, तो धर्म, दर्शन और साधना को दोष देता है । वह इस तथ्य को नहीं समझ पाता, कि मक्खन निकालने के लिए दूध को दही बना कर उसे बिलोने की आवश्यकता है। भला विचार तो कीजिए जब तक दूध का दही नहीं बनेगा और जब तक उस दही का मन्थन नहीं किया जाएगा, तब तक उसमें से नवनीत कैसे निकल सकेगा? इसी प्रकार शास्त्रों के एकएक शब्द में जीवन का अमृत परिव्याप्त है, परन्तु जब तक उसका गम्भीर अध्ययन, उदार चिन्तन और विराट मंथन नहीं होगा, तब तक उसके रहस्य को आप प्राप्त नहीं कर सकते, उसके ज्ञान-अमृत को आप अधिगत नहीं कर सकते । और जब तक ज्ञानामृत प्राप्त नहीं होता, तब तक आप धर्म, दर्शन और संस्कृति के अनन्त आनन्द की उपलब्धि नहीं कर सकते।
आप जानते हैं-दियासलाई के मुख पर जो एक मसाला लगा रहता है, उसके कण-कण में बीज रूप से अग्नि-तत्व परिव्याप्त है। उसे आप देख नहीं पाते, इस आधार पर आप यह नहीं कह सकते कि उसमें अग्नि तत्व नहीं है। निश्चय ही उसमें अग्नितत्व है, शक्ति के रूप में उसके कण-कण में अग्नि-तत्व स्थित है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पा रही है । दियासलाई के हजारों बन्डल भी एकत्रित करके यदि उसमें आप अग्नितत्त्व को देखना चाहें तो आप देख नहीं सकेंगे। प्रश्न होता है कि दियासलाई की एक सींक में अग्नि की सत्ता होने पर भी उसका दर्शन क्यों नहीं होता? इसका एक ही समाधान है, कि उस अव्यक्त शक्ति को व्यक्त करने के लिए घिसने की एवं रगड़ने की आवश्यकता है। जब तक दियासलाई की एक शलाका लेकर उसे किसी पत्थर या अन्य पदार्थ पर नहीं रगड़ेंगे, तब तक उसमें से ज्योति और प्रकाश निकल नहीं सकेगा । शक्ति तो है, किन्तु उस शक्ति को अभिव्यक्ति देने की आवश्यकता है । हजारों दियासलाइयाँ भी एक साथ क्यों न रखी हों, उनसे ज्योति और प्रकाश नहीं
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