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________________ अध्यात्म साधना ६७ जीवन में प्राण-शक्ति का बड़ा महत्व है । भौतिक प्राणशक्ति के समान आध्यात्मिक प्राणशक्ति भी होती है । इसी सन्दर्भ में मैं आपसे कह रहा था, कि जैन-धर्म और जैन-दर्शन की भी प्राण-शक्ति है। जब तक यह प्राण-शक्ति है, तब तक वह जीवित रहेगा। प्राण-शक्ति के अभाव में धर्म और दर्शन का शरीर तो रह सकता है, किन्तु आत्मा नहीं। धर्म और दर्शन के शरीर को पंथ और सम्प्रदाय कहा जाता है। धर्म और दर्शन की आत्मा को विचार और विवेक कहा जाता है । ... देव और दानवों के सागर-मंथन की पौराणिक कहानी आपने सुनी होगी । बड़ी ही सरस, रुचिकर और अर्थगम्भीर है वह कहानी । कहा जाता है कि देव और दानवों ने मिलकर अमृत को उपलब्धि के लिए सागर का मंथन किया था। सागर-मंथन में से अमृत भी निकला था और विष भी। अमृत पीने के लिए तो देव और दानव सभी लालायित थे, किन्तु विष को पीने के लिए कोई तैयार नहीं हो सका। आखिर, महादेव शिव ने ही विष पीकर सबके लिए अमृतपान का अवरुद्ध द्वार खोला । विष को पचाने की शक्ति न स्वर्ग के देवों में है, न धरती के इंसानों में । विष को पचाने की शक्ति तो एक मात्र महादेव में, शिव में ही होती है। ___मानव-जीवन भो एक सागर है, इसका भी मंथन किया जाता है। इसके मंथन को हम साधना कहते हैं। जब साधक साधना के पथ पर स्थित होकर अपने अन्तर्जीवन का मंथन करता है, तब उसमें से विकल्प का विष, और विचार का ज्ञानामृत प्रकट होता है। इसी प्रकार शास्त्र रूपी सागर का मंथन भी किया जाता है । द्वादशांगी वाणी में भगवान महावीर के उपदेशों का संग्रह एक प्रकार का महासागर ही है। उस सागर का मंथन बुद्धि एवं चिन्तन के मन्दराचल से जब किया जाता है, तब उसमें से सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का अमृत प्रकट होता है । किन्तु याद रखिए शास्त्रसागर का मंथन जितना उदार, तटस्थ, अनाग्रह एवं गम्भीर होगा, उसमें से उतना ही अधिक जोवनोपयोगी अमृत प्राप्त होगा। यदि मंथन अल्प होता है, तो अमृत भी थोड़ा ही प्राप्त होता है। और यदि आग्रह बुद्धि के कारण विपरीत प्रक्रिया से मंथन होता है, तो अमृत नहीं, विष ही प्राप्त होगा । यहाँ विष की नहीं, अमृत की चर्चा है । दूध का मक्खन दूध के कण-कण में परिव्याप्त रहता है, उसका कोई भी भाग नवनीत से खाली नहीं रहता है। परन्तु यदि दूध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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