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अध्यात्म साधना
जैन-दर्शन का प्राण, जैन-धर्म का हृदय और जैन - संस्कृति के मर्म का जब तक ठीक से परिज्ञान नहीं हो जाता है, और जब तक उसको अच्छी तरह परख नहीं लिया जाता है, तब तक आप जैन दर्शन के शरीर को भले ही समझ लें, उसकी अन्तर् आत्मा को आप परख नहीं सकते । मानव का यह भौतिक शरीर कितना ही बलवान, कितना ही मजबूत और कितना ही लम्बा और चौड़ा क्यों न हो, परन्तु इस शरीर की सत्ता तभी तक है, जब तक इसमें प्राण-शक्ति का संचार होता रहता है, इसमें श्वासों की वीणा की झंकार गूंजती रहती है और हृदय चक्र अपनी धुरी पर नियमित गति करता रहता है । जागृत एवं स्वप्न दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य का हृदय गतिशील रहता है । यदि हृदय की यह सतत गतिशीलता एक क्षण के लिए भी बन्द हो जाए, तो जीवन का सारा खेल ही समाप्त हो जाए। शरीर का सारा खेल प्राण वायु और हृदय की गति पर ही चलता है । और प्राणवायु एवं हृदय की गति का खेल भी तभी तक है, जब तक शरीर में चैतन्य शिव विराजमान हैं । यदि शरीर में से शिवत्व निकल जाता है, तो केवल शव मात्र रह जाता है । शरीर में से शिव चला गया, अर्थात् आत्मा चला गया, तो शरीर शव रूप में यहीं पड़ा रह जाता है ।
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