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________________ ३१६ | अध्यात्म-प्रवचन और पाप, यह भी सब संसार के ही खेल हैं। इनसे आत्मा का कोई हित नहीं होता, बल्कि अहित ही होता है । अध्यात्म-ज्ञानी की दृष्टि में शुभ भी बन्धन है और अशुभ भी बन्धन है, पाप भी बन्धन है, और पुण्य भी बन्धन है, सुख भी संसार है, और दुःख भी संसार है, शुभ भी संसार है और अशुभ भी संसार है। प्रश्न होता है, कि यदि यह सब कुछ संसार है, तो संसार का विपरीत भाव मोक्ष क्या है ? इसके समाधान में कहा गया है, कि आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही मोक्ष है, जो शुभ और अशुभ दोनों से अतीत है । दुःख की व्याकुलता यदि संसार है तो सुख की आसक्ति रूप आकुलता भी संसार ही है। मोक्ष की स्थिति में न दुःख की व्याकुलता रहती है, और न सुख की आकूलता ही रहती है । जब तक जीव इस भेद-विज्ञान को नहीं समझेगा, तब तक वह संसार से निकल कर मोक्ष के स्वरूप में रमण नहीं कर सकेगा। पुद्गल और जीव का संयोग यदि संसार है, तो पुद्गल और जीव का वियोग ही मोक्ष है, परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है, कि जो अजीव कर्म पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध होने वाला है या हो चुका है, उसे जीव से अलग रखने या अलग करने का प्रयत्न किया जाए, इसी को मोक्ष की साधना कहते हैं। इस साधना का मुख्य केन्द्र-बिन्दु है, आत्मा और अनात्मा का भेद-विज्ञान । जब तक जीव पृथक् है और अजीव पृथक् है यह भेद-विज्ञान नहीं हो जाता है, तब तक मोक्ष की साधना सफल नहीं हो सकती । यह भेद-विज्ञान तभी होगा, जबकि आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जायगी। सम्यक् दर्शन के अभाव में न मोक्ष की साधना ही को जा सकती और न वह किसी भी प्रकार से फलवती ही हो सकती है। भेद-विज्ञान का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । सम्यक् दर्शन के अभाव में जीवन की एक भी क्रिया मोक्ष का अंग नहीं बन सकती, प्रत्युत उससे संसार की अभिवृद्धि ही होती है । मोक्ष की साधना के लिए साधक को जो कुछ करना है, वह यह है कि वह शुभ और अशुभ दोनों से दूर हो जाए । न शुभ को अपने अन्दर आने दे और न अशुभ को ही अपने अन्दर आने दे । जब तक अन्दर के शुभ एवं अशुभ के विकल्प एवं विकार दूर नहीं होंगे, तब तक मोक्ष की सिद्धि नहीं की जा सकेगी। आस्रव से वन्ध और बन्ध से फिर आसव, यह चक्र आज का नहीं, अनादि काल का है, परन्तु इससे विमुक्त होने के लिए, आत्म-ज्ञान और अपनी सत्ता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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