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संसार ओर मोक्ष | ३१५ के ज्ञान के साथ अजीव का ज्ञान स्वतः ही हो जाता है। शास्त्रकारों ने जीव का लक्षण बतलाया है-उपयोग । और अजीव के लिए कहा है, कि जिसमें उपयोग न हो वह अजीव है। अजीव का शब्दार्थ ही है कि जो जीव न हो वह अजीव, अर्थात अ+जीव । अतः अजीव से पहले जीव का ही प्रमुख स्थान है।
जीव और अजीव के बाद आस्रव तत्व आता है। आस्रव क्या है ? जीव और अजीव का परस्पर विभावरूप परिणति में प्रवेश ही आस्रव है। दो विजातीय पृथग्भूत तत्वों के मिलन की क्रिया, विभाव परिणाम ही आस्रव है । जीव की विभाव रूप परिणति और अजीव की विभाव रूप परिणति ही वस्तुतः आस्रव है। एक ओर आत्मा रागद्वेषरूप विभाव अवस्था में परिणत होता है, तो दूसरी ओर कर्माण पुद्गल भी कर्मरूप विभाव अवस्था में परिणति करता है। उक्त उभयमुखी विभाव के द्वारा जब जीव और अजीव का संयोग होता है, उस अवस्था को शास्त्रकारों ने आस्रव कहा है। इसीलिए जीव और अजीव के बाद आस्रव को रखा गया है। ____ आस्रव के बाद बन्ध आता है। बन्ध का अर्थ है-कर्म पुद्गल रूप अजीव और जीव का दूध और पानी के समान एक क्षेत्रावगाही हो जाना । बन्ध का अर्थ है-वह अवस्था, जब कि दो विजातीय तत्व परस्पर मिलकर सम्वद्ध हो जाते हैं। इसी को संसार अवस्था कहा जाता है।
पुण्य और पाप, जो कि शुभ क्रिया एवं अशुभ क्रियाएँ है, उनका अन्तर्भाव आस्रव में और बन्ध में कर दिया जाता है। आस्रव दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ । आस्रव के बाद बन्ध की प्रक्रिया होती है, अतः वन्ध भी दो प्रकार का होता है-शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । इस प्रकार शुभ और अशुभ रूप पुण्य और पाप दोनों ही आश्रव और बन्ध में अन्तभुक्त हैं । यहाँ तक संसार-अवस्था का ही मुख्य रूप से वर्णन है । बाहर के किसी भी वन, पर्वत, नदी आदि जड़ पदार्थ को संसार नहीं कहा जाता। वास्तविक संसार तो कर्म परमाणुओं का अर्थात कर्म दलिकों का आत्मा के साथ सम्बन्ध हो जाना ही है । जब तक जीब और पुद्गल की यह संयोग अवस्था रहेगी, तव तक संसार की स्थिति और सत्ता भी रहेगी। यह स्वर्ग और नरकों के खेल, यह पशु-पक्षी और मानव का जीवन, सब आस्रव और बन्ध पर ही आधारित हैं । शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य
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