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उपादान और निमित्त | २२५ कल्पना की ऊँची और लम्बी उड़ान भरता है, वह कहता है किपरमात्मा अनन्त है, यह आत्मा आनन्द एवं ज्ञानमय है । आत्मा शुद्ध एवं बुद्ध है, निरंजन एवं निर्विकार है, किन्तु इस विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं किया जा सकता । यदि उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता और साधक अपनी साधना के बल पर उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता, तो इस प्रकार का आदर्श किस काम का ? वैदिक दर्शन में परमात्मा को अनन्त अवश्य कहा गया, परन्तु साथ में यह भी कह दिया गया कि परमात्मा, परमात्मा है और तुम, तुम हो। तुम परमात्मा नहीं बन सकते, उसके भक्त और सेवक ही बने रह सकते हो । परमात्मा की कृपा से अथवा भगवान के अनुग्रह से ही तुम मुक्ति लाभ कर सकते हो । इस प्रकार के कल्पना - मूलक आदर्शवाद ने अध्यात्म साधना की जड़ ही काट कर रख दी । साधक के समक्ष साधना के मार्ग का कोई अर्थ नहीं रहता, यदि वह अपनी साधना के द्वारा प्रयत्न और पुरुषार्थ करने पर भी भक्त ही बना रहता है, भगवान नहीं हो सकता । इसके विपरीत अध्यात्मवादी दर्शन भले ही वे जैन, बौद्ध, वेदान्त, सांख्य आदि किसी भी परम्परा के क्यों न हों, सब का आदर्श उनके आदर्श से भिन्न है, जो अपने आपको ईश्वरवादी दार्शनिक कहते हैं । ईश्वरवादी दर्शन आदर्शवादी दर्शन अवश्य है, परन्तु यथार्थवादी दर्शन नहीं है, क्योंकि वह साधक के समक्ष साधना का राजमार्ग प्रस्तुत नहीं कर सकता । जैन दर्शन आदर्शवादी होते हुए भी यथार्थ - वादी है । उसका आदर्श स्वप्न के समान नहीं है, जिसमें अभीष्ट वस्तु प्राप्त तो होती है, किन्तु जागरण होते ही वह नष्ट हो जाती है । जैन दर्शन के अनुसार चेतन धर्म की ऊँची से ऊँची अवस्था को प्राप्त कर सकता है । यह आत्मा परमात्मा बन सकता है, भक्त भगवान बन सकता है, जीव ब्रह्म बन सकता है । जो कुछ आदर्श है, उसे यथार्थ रूप में प्राप्त किया जा सकता है। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि बाहर से प्राप्त नहीं, बल्कि वह परमात्मभाव, वह परब्रह्मभाव, वह योग्यता, वह शक्ति और वह स्वरूप गुणों के रूप में तुम्हारे अन्दर ही विद्यमान है, केवल उसे व्यक्त करने की आवश्यकता है । वह आन्तरिक शक्ति प्रकट हुई नहीं कि आत्मा परमात्मा बन जाता है, भक्त भगवान बन जाता है । मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जैन-दर्शन यथार्थवादी इस अर्थ में है, कि वह जन-चेतना के समक्ष जो आदर्श
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