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२२४ | अध्यात्म प्रवचन कथमपि सम्भव नहीं है । उसका प्राप्त करना ही असम्भव है । यद्यपि चन्द्र सुन्दर है, प्रिय है, तथापि वह एक ऐसा पदार्थ है, कि उसे पकड़ कर कोई अपने घर में ला नहीं सकता है। किसी वस्तु का सुन्दर होना, अच्छा होना और महत्वपूर्ण होना एक बात है, परन्तु उसे प्राप्त करना दूसरी बात है। हजारों हजार प्रयत्न करने पर भी कोई व्यक्ति चन्द्र को पकड़ नहीं सकता । चन्द्र को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। किन्तु याद रखिए, आत्मा के देदीप्यमान गुण सम्यक् दर्शन का प्राप्त करना असम्भव नहीं, सम्भव है, प्रयत्न-साध्य है । वह आकाशकुसुम नहीं है, अथवा 'आकाश चन्द्र' नहीं है, जिसे प्राप्त न किया जा सके । मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि, जिस पकार आकाश के फल को हजार वर्ष के बाद भी कोई प्राप्त नहीं कर सकता, वसी बात सम्यक् दर्शन से सम्बन्ध में नहीं है। सम्यक् दर्शन की उपलब्धि अथवा उसकी प्राप्ति का उपाय कठिनतम हो सकता है, किन्तु उसे असम्भव कोटि में नहीं डाला जा सकता। क्योंकि सम्यक् दर्शन कोई बाह्य पदार्थ नहीं है, जिसे प्राप्त किया जाए। वह तो आत्मा का ही एक निज गुण है । मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का एक आवरण उस पर आ गया है, उस आवरण को हटाने भर की देर है, फिर तो सम्यक दर्शन की उपलब्धि अथवा आविर्भाव स्वतः हो जाता है। यह बात अवश्य है, कि सम्यक दर्शन के अभाव में हमारी किसी भी प्रकार की साधना सफल नहीं हो सकती। इसीलिए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन केवल आवश्यक ही नहीं है, बल्कि अध्यात्म-साधना के विकास के लिए अनिवार्य भी है और महत्वपूर्ण भी है। और निश्चय ही जीवन में प्राप्त भी किया जा सकता है।
जैन-दर्शन केवल एक आदर्श वादी दर्शन ही नहीं है, बल्कि वह एक यथार्थवादी दर्शन भी है। कोरा आदर्शवाद कल्पना की वस्तु होता है, अतः उसके साथ यथार्थवाद का समन्वय आवश्यक है । जैनदर्शन में किसी भी प्रकार के एकान्तबाद को स्थान प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि अपने मूल रूप में वह अनेकान्तवादी है। इस अपेक्षा से यह कहा जा सकता है, कि जैन-दर्शन में कोरा आदर्शवाद मान्यता प्राप्त नहीं कर सकता और अकेला यथार्थवाद भी वहां स्वीकृत नहीं किया जा सकता । इसलिए जैन-दर्शन आदर्शवादी होते हुए भी यथार्थ वादी है और यथार्थवादी होकर भी वह आदर्शवादी है। आदर्शवाद
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