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________________ उपादान और निमित्त | २२३ दर्शन आत्मा के दर्शन - गुण की शुद्ध पर्याय है । दर्शन गुण है और आत्मा गुणी है । जैन दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में न एकान्त भेद है और न एकान्त अभेद । गुण और गुणी में जैन दर्शन कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद स्वीकार करता है । परन्तु अध्यात्म दृष्टि से एवं परम विशुद्ध निश्चय नय से जब वस्तु तत्व का वर्णन किया जाता है, तब वहाँ भेद को गौण करके, अभेद की ही मुख्यता रहती है । अतएव सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में अभेद नय से कहा जाता है कि सम्यक् दर्शन आत्मा है और आत्मा सम्यक् दर्शन है । अभेद दृष्टि से गुण और गुणी में कोई भेद नहीं होता, कहने का भेद भले ही क्यों न हो । कल्पना कीजिए, आपके सामने मिश्री की एक डली रखी हुई है । क्या आप मिश्री के मिठास को मिश्री से अलग देख सकते हैं ? आपके सामने एक मोती रखा हुआ है । क्या आप मोती और उसकी श्वेतिमा ( सफेदी ) को अलग-अलग देख सकते हैं ? निश्चय ही मिश्री की मिठास और मोती की सफेदी, मिश्री और मोती से भिन्न नजर नहीं आती, दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होते । परन्तु दोनों को अलग भी कहते हैं । कहने और बोलने की भाषा अलग जो होती है । शब्दों में सत्य खण्ड रूप में ही अभिव्यक्त होता है । भाषा के किसी भी शब्द में सम्पूर्ण (अखण्ड) सत्य को अभिव्यक्त करने की शक्ति नहीं है । अस्तु, यह स्पष्ट है कि सम्यक् दर्शन आत्मा का गुण है और आत्मा गुणी है, दोनों में कोई भेद नहीं, क्यों कि जो आत्मा है वही सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन की व्याख्या करते हुए अथवा उसकी परिभाषा बताते हुए कहा गया है कि - सम्यक् दर्शन का आविर्भाव जब आत्मा में हो जाता है, तब उस निर्मल ज्योति के समक्ष, उस प्रज्वलित दीप के समक्ष आत्मा में मिथ्यात्व एवं अज्ञान का अन्धकार नहीं रहने पाता है । साधक के जीवन में सम्यक् दर्शन बहुत ही महत्वपूर्ण है । परन्तु उसकी उपलब्धि का उपाय क्या है, तथा किस साधना के द्वारा उसे उपलब्ध किया जा सकता है ? यह प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । इस प्रश्न का समाधान ही वस्तुतः अध्यात्म की साधना है । कल्पना कीजिए, अनन्त गगन में स्थित एवं प्रकाशमान स्वच्छ एवं निर्मल चन्द्र कितना सुन्दर लगता है, उसका प्रकाश कितना शीतल एवं प्रिय होता है । चन्द्र तो बहुत अच्छा है, यदि उसे अपने घर में रखा जाए तो, उससे बहुत शीतल प्रकाश मिल सकता है, परन्तु उसकी उपलब्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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