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उपादान और निमित्त
किसी भी वस्तु का परिज्ञान करने के लिए जैन-दर्शन में दो दृष्टियों का वर्णन किया गया है-भेद दृष्टि और अभेद-दृष्टि । भेद दृष्टि का अर्थ है-एकता में अनेकता । अभेद-दृष्टि का अर्थ है-अनेकता में एकता। जब साधक इस विश्व को एवं विश्व के पदार्थों को भेद-दृष्टि से देखता है, तो उसे सर्वत्र अनेकता-ही-अनेकता दृष्टिगोचर होती है, उसे कहीं पर भी एकता नजर नहीं आती। किन्तु वही साधक जब विश्व को एवं विश्व के पदार्थों को अभेद-दृष्टि से देखता है, तब सर्वत्र उसे एकता ही एकता दृष्टिगोचर होती है, उसे कहीं पर भी अनेकता नजर नहीं आती। वस्तुतः संसार द्रष्टा के सामने वैसा ही उपस्थित हो जाता है, जिस दृष्टि से द्रष्टा उसे देखता है।
यहाँ पर आत्म-भाव का वर्णन चल रहा है, आत्म-भाव के वर्णन में सबसे मुख्य बात यह है कि आत्मा के स्वरूप का बोध करना और आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की उपलब्धि के लिए प्रयत्न करना। मैं आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में मैंने अपने पूर्व प्रवचन में कहा था, कि सम्यक्
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