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सम्यक् दर्शन के भेद | २२१ सकता है, यह एक निश्चित सिद्धान्त है। दोनों प्रकार के सम्यक् दर्शनों में उपादान की शक्ति का बल ही मुख्य एवं प्रधान है। मेरे विचार में सम्यक् दर्शन और निमित्त सापेक्ष हो, अथवा परनिमित्तनिरपेक्ष हो, पर वह आत्मा में कहीं बाहर से नहीं आता, अपने अन्दर के उपादान में से ही होता है। किसी आत्मा की उपादान में ऐसी तैयारी रहती है, कि सम्यर्क दर्शन की उपलब्धि में उसे बाह्य निमित्त की अपेक्षा रहती ही नहीं है। ___आप जीवन में इस तथ्य को भली भाँति जानते हैं कि एक व्यक्ति बिना किसी की शिक्षा के और बिना किसी के मार्ग दर्शन किए स्वयं अपने ही अभ्यास से और स्वयं अपने ही श्रम से अपनी कला में एवं अपने कार्य में दक्ष हो जाता है। दूसरी ओर संसार में कुछ व्यक्ति इस प्रकार के भी हैं, जिन्हें किसी भी कला में निपूणता प्राप्त करने के लिए, अथवा किसी भी कार्य में दक्ष होने के लिए गुरुजनों के उपदेश की एवं अपने अभिभावकों के मार्ग-दर्शन की आवश्यकता रहती है । इसी प्रकार निसर्गज सम्यक् दर्शन एक वह अध्यात्म कला है, जो स्वयं के आन्तरिक पुरुषार्थ से एवं स्वयं के आन्तरिक बल से प्राप्त की जाती है । और अधिगमज सम्यक् दर्शन जीवन की वह कला है जिसे अधिगत करने के लिए दूसरों के सहकार की आवश्यकता है। दूसरों के सहकार की भी कुछ सीमा होती है। वही सब कुछ नहीं है। मूल वस्तु तो अपने अन्दर का जागरण ही है। यदि कोई व्यक्ति गुरु का उपदेश तो सुने परन्तु उसे अपने हृदय में धारण न करे तो उस उपदेश से क्या लाभ होगा? शून्य-चित्त व्यक्ति को निमित्त पाकर भी कोई लाभ नहीं होता।
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