SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० | अध्यात्म-प्रवचन अंश में अशुद्धि भी, क्योंकि इसमें दर्शन मोहनीय कर्म की सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति का उदय रहता है और इस प्रकार सम्यक्त्व मोहनीय के आंशिक उदय से आत्मा की दर्शन सम्बन्धी पूर्ण विशुद्ध स्थिति नहीं रह सकती । आत्मा की दर्शन सम्बन्धी विशुद्ध स्थिति के लिए, या तो दर्शन मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाना चाहिए, अथवा उसका उपशमन हो जाना चाहिए । अब प्रश्न यह है कि अधिगमज सम्यक् दर्शन की व्याख्या और परिभाषा क्या है ? मैं पहले यह कह चुका हूँ कि निसर्ग शब्द का अर्थ है - स्वभाव, परिणाम और अपरोपदेश । अधिगम शब्द का अर्थ है - परनिमित्त, परसंयोग और परोपदेश । इसका अर्थ यह हुआ कि अधिकगमज सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में शास्त्र -स्वाध्याय आदि की आवश्यकता है और किसी न किसी परसंयोग की अनिवार्यता है । यद्यपि अधिगमज सम्यक् दर्शन में भी उसका अन्तरंग कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम भाव, क्षयभाव और क्षयोपशम भाव अवश्य ही रहता है, तथापि अधिगमज सम्यक् दर्शन में बाहर का निमित्त भी अपेक्षित है । निष्कर्ष यह है कि जो सम्यक् दर्शन बाह्य एवं अन्तरंग दोनों कारणों की अपेक्षा रखता है, वह अधिगमज सम्यक् दर्शन कहलाता है । इसके विपरीत निसर्गज सम्यक् दर्शन में किसी भो बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती आत्मशुद्धि का जितना मार्ग निसर्गज सम्यक् दर्शन में तय करना पड़ता है, उतना ही अधिगमज सम्यक् दर्शन में भी तय करना पड़ता है । निसर्गज और अधिगमज सम्यक् दर्शन में अधिक अन्तर नहीं है, क्यों कि दोनों में अन्तरंग कारण तो समान ही है । उपादान की शक्ति दोनों जगह ही काम करती है, दोनों की स्वरूप-शुद्धि में भी कोई अन्तर नहीं है । आध्यात्मिक शुद्धि का स्वरूप दोनों का एक जैसा ही होता है । यदि दोनों में कुछ अन्तर है तो केवल इतना ही कि एक बाह्य निमित्तनिरपेक्ष है और दूसरा बाह्य निमित्त सापेक्ष है । एक में निमित्त नहीं रहता, इसलिए वह निमित्त-निरपेक्ष है और दूसरे में निमित्त रहता हैं, इसलिए वह निमित्त सापेक्ष है । परन्तु अध्यात्म क्षेत्र के विकास में निमित्त महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण तो आत्मा की अपनी उपादान शक्ति ही है । निमित्त बहुत बड़ा बलवान नहीं होता है । आत्मा के उपादान के बिना निमित्त का महत्व नहीं के बराबर है । आत्मा को अपने स्वयं के पुरुषार्थ के अभाव में सम्यक् दर्शन नहीं हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy