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________________ सम्यक् दर्शन के भेद | २१९ है, वह निसर्गज सम्यक् दर्शन है। निसर्गज सम्यक् दर्शन में अन्तर की दिव्य शक्ति एवं उपादान शक्ति से ही दर्शन मोहनीय कर्म क्षीण हो जाता है और अन्तर में सम्यक दर्शन का प्रकाश जगमगाने लगता है, इसमें बाहर का कोई भी निमित्त नहीं होता। कभी-कभी यह कहा जाता है, कि सम्यक्त्व की प्राप्ति मोहनीय कर्म के क्षय एवं उपशम आदि के पश्चात् होती है। परन्तु मैं पूछता है वह क्षय और उपशम स्वयं ही होता है क्या? यदि दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय और उपशम स्वयं नहीं होता है, तो उसका क्षय करने वाला कौन है ? यह एक बड़ा विकट प्रश्न है। इसके समाधान में कहा गया है कि-दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय एवं उपशम करने वाला कोई बाहर का अन्य पदार्थ नहीं है, वह स्वयं आत्मा ही है, आत्मा की उपादान शक्ति से ही मोहनीय कर्म का क्षय एवं उपशम होता है। कर्मों का आवरण स्वयं नहीं टूटता, उसे आत्मा के अन्तर का पुरुषार्थ ही तोड़ता है। आत्मा का पुरुषार्थ निसर्गज सम्यक् दर्शन में सहज होता है, उस पुरुषार्थ के जागृत होने पर दर्शन मोह का आवरण टूट जाता है और आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है । अन्तर पुरुषार्थ की जागृति के लिए किसी बाह्य निमित्त एवं पर की अपेक्षा नहीं रहती। जब आन्तरिक पुरुषार्थ का वेग तीव्र होता है, तब आत्मा बन्धनों को तोड़कर उससे विमुक्त हो जाता है। निसगंज सम्यक् दर्शन में आत्मा स्वयं ही साधक है, स्वयं ही साधन है और स्वयं साध्य है। निश्चय दृष्टि से एवं भूतार्थ ग्राही नय से यह आत्मा स्वयं अपनी उपादान शक्ति से ही अपने स्वरूप की उपलब्धि करता है, अथवा अपने स्वरूप को आविर्भूत करता है । अनन्त-अनन्त कर्मदल का भोग भोगते-भोगते आत्मा में कभी विलक्षण आध्यात्मिक जागरण होने से रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प मन्द हो जाते हैं, और उससे वह विशुद्धि हो जाती है, कि आत्मा के दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम होने से तदनुसार सम्यक्त्व भी तीन प्रकार का हो जाता है-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । यद्यपि दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय में आत्मा की दर्शनविषयक पूर्ण विशुद्धि सदाकाल के लिए हो जाती है, किन्तु उपशम भाव में भी आत्मा को निर्मलता पूर्णरूपेण शुद्ध रहती है, किन्तु वह उतने ही क्षणों तक रहती है, जितने क्षण तक दर्शन मोहनीय कर्म का उपशमन रहता है। यह दोनों स्थितियाँ आत्मा की विशुद्ध स्थितियां हैं । शायोपशमिक सम्यक्त्व में कुछ अंश में विशुद्धि रहती है और कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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