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________________ २१८ ! अध्यात्म प्रवचन और जहाँ कोई उसकी जय-जयकार करने वाला नहीं होता, वहाँ सर्वत्र उसे प्रतिकूल वातावरण ही मिलता है एवं प्रतिकूल संयोग ही मिलते हैं । उस स्थिति में किसी के प्रति द्वष न करते हुए, समभाव में लीन रहकर कर्मों की उदीरणा की जाती है । जिस कर्मदल के भोग में सागर के सागर समाप्त हो जाते हैं, उसे एक आवलिका जितने अल्प काल में भोग लेना, अर्थात् उदय की एक आवलिका में लाकर अन्तमहत में उसे पूरा कर लेना, कोई साधारण बात नहीं है। अध्यात्म साधक उदय प्राप्त कर्मों को भोग-भोगकर क्षय करने की अपेक्षा उदीरणा के द्वारा कर्मों को समय से पूर्व ही शीघ्र क्षय करने में अधिक लाभ समझते हैं। किन्तु उदीरणा की प्रक्रिया की यह साधना, साधारण नहीं है। धीर, वीर एवं गम्भीर साधक ही इस उदीरणा की प्रक्रिया में अपने मन का संतुलन ठीक रख पाते हैं। इस प्रकार के ज्ञानी के लिए सुख एवं दुःख वरदान एवं उद्धार के साधन होते हैं । परन्तु अज्ञानी के लिए वे ही संहार के एवं संसार के साधन हो जाते हैं । मिथ्यात्वी आत्मा अनन्त-अनन्त काल से सुखात्मक एवं दुःखात्मक भोग भोग रहा है । किन्तु दुःखात्मक भोग में वह कुम्हला जाता है और सुखात्मक भोग में वह फूल जाता है, जिससे कि वह भविष्य के लिए फिर नवीन कर्मों का बन्ध कर लेता है और कर्मों के भार के नीचे दब जाता है । अध्यात्म शास्त्र में इसी को संसार-वृद्धि कहा जाता है । परन्तु जो ज्ञानी आत्मा होता है और जिसका अध्यात्म भाव जागृत होता है, वह भयंकर से भयंकर एवं तीव्र से तीव्रतर विघ्न बाधाओं के आने पर भी विचलित नहीं होता, बल्कि उसे भोग कर समाप्त करने का ही उसका लक्ष्य रहता है, किन्तु उसका वह भोग समभाव के साथ होता है। जिससे कि फिर भविष्य के लिए नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। अध्यात्म शास्त्र में इसी को संवर की साधना कहते हैं, इसी को निर्जरा की साधना कहते हैं और इसी को मोक्ष की साधना भी कहते हैं। ___ मैं आपसे यह कह रहा था, कि सम्यक् दर्शन के दो भेद हैंनिसर्गज सम्यक् दर्शन और अधिगमज सम्यक् दर्शन । निसर्गज सम्यक दर्शन वह है, जिसमें किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती । गुरु उपदेश के बिना ही, एवं स्वाध्याय आदि बाह्य निमित्त के बिना ही, स्वयं आत्मा की विशुद्ध परिणति से जिस सम्यक्त्व की उपलब्धि होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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