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________________ उपादान और निमित्त | २३१ अपनेपन की मुहर लगाने का प्रयत्न किया गया और आज भी किया जा रहा है। __ मैं आपसे केवल एक ही बात कहना चाहता है, कि आप लोग सत्य को परखने का प्रयत्न करें, जहाँ कहीं से भी सत्य आपको मिलता है, आप उसे अवश्य लीजिए। सत्य, सत्य है, वह किसी एक का नहीं, सबका होता है । सत्य अमृत है, किन्तु इस अमृत में जब पन्थवादी मनोवृत्ति धुल जाती है, तब यह विष बन जाता है। आप अपने जीवन-सागर का मन्थन करके उसमें से अमृत-प्राप्ति का ही प्रयत्न करें और उसके विष का परित्याग कर दें। विष का परित्याग करने के लिए और अमृत को ग्रहण करने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता सम्यक् दर्शन की ही है। आपके सामने निसर्गज सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है और यह प्रश्न था कि भले ही वर्तमान जन्म में उसकी उत्पत्ति के समय कोई बाह्य निमित्त न हो, परन्तु कभी-न-कभी पूर्व जन्म में भी उसका कोई बाह्य निमित रहा है या नहीं ? निसर्गज सम्यक दर्शन के बारे में बड़े ही महत्व का प्रश्न यह है कि उसमें कोई बाह्य निमित्त केवल इसी जीवन में नहीं रहा, कि पूर्व जन्मों में भी कभी नहीं रहा? सम्यक् दर्शन केवल निजपुरुषार्थ के बल पर ही प्राप्त होता है अथवा उसे प्राप्त करने के लिए किसी प्राचीन संस्कार को भी जगाना पड़ता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में बहुत कुछ लिखा गया है । कुछ आचार्य इस जन्म में तो बाह्य निमित्त नहीं मानते किन्तु कहीं न कहीं पूर्व जन्मों में देशनालब्धि के रूप में उपदेश आदि निमित्त का होना अवश्यम्भावी मानते हैं । और कुछ आचार्यों का कहना है कि निसर्गज सम्यक दर्शन के लिए पूर्व जन्मों में भी किसी प्रकार का निमित्त नहीं होता। उनका तात्पर्य इतना ही है कि यह आत्मा अनन्त काल से भव-भ्रमण करता आया है। कर्मावरण हलका होते-होते आत्मा को किसी भव में कुछ ऐसे अपूर्व अन्तरंग भाव उत्पन्न हो जाते हैं कि बिना किसी बाह्य निमित्त के ही अन्तरंग में आत्मा की उपादान शक्ति से भिथ्यात्व मोहनीय कर्म का आवरण क्षीण हो जाता है, टूट जाता है और इस प्रकार अन्तरंग के पुरुषार्थ से ही आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है । इस प्रकार निसगंज सम्यक् दर्शक की उपलब्धि में बाहर में कोई निमित्त नहीं होता। उदाहरण के रूप में मरुदेवी माता के जीवन को ही लीजिए। हम देखते हैं कि उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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