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२३२ | अध्यात्म-प्रवचन
उनके वर्तमान जीवन में किसी भी प्रकार का बाह्य निमित्त नहीं मिला । न किसी तीर्थंकर की वाणी का श्रवण किया गया और न किसी प्रकार की अन्य कोई विशिष्ट साधना ही की गई । मरुदेवी जी के लिए तो कहा जाता है कि वह अनादि काल से निगोद में ही रहती आई थीं, अतः पूर्व जन्मों में भी कभी उपदेश आदि का निमित्त नहीं मिला था । किन्तु फिर भी हाथी के ओहदे पर बैठे-बैठे ही मरुदेवी माता को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है । इस दृष्टि से मेरा यह कहना है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन में किसी बाह्य निमित्त को महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता । निसगंज सम्यक् दर्शन में न इस जीवन का ही कोई निमित्त मिलता है, और न किसी पूर्व जन्म के जीवन के किसी, बाह्य निमित्त का ही सहारा मिलता है । उसमें तो एक मात्र उपादान शक्ति ही काम करती है, जो कि आत्मा की निज शक्ति है और आत्मा का अपना ही अन्तरंग पुरुषार्थ एवं प्रयत्न है ।
आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ है और उसकी शक्ति भी स्वतन्त्र है । उसे निमित्त चाहिए, परन्तु बाह्य पदार्थों के निमित्त का इतना महत्व नहीं है, कि जिसके बिना सम्यक् दर्शन हो ही न सकता हो । कुछ आचार्य निमित्त पर बल देते हैं, और कुछ उपादान पर । मेरे अपने विचार में उपादान की ही मुख्यता एवं प्रधानता है । बिना उपादान के किसी भी प्रकार अध्यात्म-विकास सम्भव नहीं है । जब स्वयं आत्मा में ही जागण नहीं आया, तब बाह्य निमित्त भी कितना उपयोगी हो सकेगा ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । दर्शन मोहनीय कर्म निमित्त से टूटता है अथवा स्वयं उपादान की शक्ति से टूटता है ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम करने के लिए किस कारण की आवश्यकता है ? बाह्य कारण की अथवा अन्तरंग कारण की ? मेरे विचार में आत्मा के अन्तरंग पुरुषार्थ से ही उसका उपशम, क्षय और क्षयोपशम होता है, जिसके फलस्वरूप आत्मा में सम्यक् दर्शन का आविर्भाव हो जाता है । परन्तु यह तभी होता है, जब कि आत्मा में स्वयं का जागरण आ जाता है । उपादान शक्ति अन्य कुछ नहीं है, आत्मा की निज शक्ति को ही उपादान कहा जाता है । आत्मा के विकास में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता । यदि केवल बाह्य निमित्त से ही सम्यक् दर्शन की उपलब्धि सम्भव हो, तो फिर
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