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________________ सम्यग दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३४१ छोड़ देता है, और पूजा एवं प्रतिष्ठा की अभिलाषा करता है, यही कांक्षा है । साधक का मन जब अपनी साधना में स्थिर नहीं रह पाता, तब वह इधर-उधर भटकना प्रारम्भ कर देता है। उस स्थिति में अपने पथ की प्रतिकूलता उसे पथ भ्रष्ट कर सकती है। संसार के भोग-विलासों का आकर्षण एक प्रकार की कांक्षा ही है। जब साधक किसी भी प्रकार के भोग को लालसा के वशीभूत हो जाता है, तब यह निश्चित है कि वह अपने मन की सन्तोष-सुधा को भूल कर ही वैसा करता है । कुछ आचार्यों ने कांक्षा शब्द का अर्थ यह भी किया है, कि अपने पंथ और सम्प्रदाय को छोड़कर दूसरे के पंथ और सम्प्रदाय की ओर आकर्षित होना । साधना-क्षेत्र में किसी भी प्रकार की कांक्षा, आकांक्षा, कामना, अभिलाषा और इच्छा को अवकाश नहीं है। इन सबका मूल प्रलोभन में है। जब तक साधक के मन में किसी भी प्रकार का प्रलोभन विद्यमान रहता है, तब तक वह किसी न किसी प्रकार की कांक्षा की आग में जलता ही रहेगा। कांक्षा चाहे किसी पंथ की हो, चाहे किसी पदार्थ की हो और चाहे किसी व्यक्ति विशेष की हो, वह साधक के लिए कभी हितकर नहीं होती। अतः अध्यात्म-साधना करते हुए सभी प्रकार की काक्षांओं से और इच्छाओं से दूर रहने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, तभी साधक अपनी साधना के अभीष्ट फल को प्राप्त कर सकता है । सम्यक्त्व का तीसरा दूषण है-विचिकित्सा। यह दूषण एक ऐसा दूषण है, जो साधक को उसकी किसी भी साधना में स्थिर और एकाग्र नहीं बनने देता । विचिकित्सा शब्द का अर्थ है-फल-प्राप्ति में सन्देह करना । जब साधक को अपनी साधना के फल में संशय और सन्देह हो जाता है, तब साधना करने में उसे न किसी प्रकार का आनन्द आता है और न उसके मन में किसी प्रकार का उत्साह ही रहता है। कल्पना कीजिए किसी एक व्यक्ति को जो आपके घर पर आया है, आपने बड़े आदर से सून्दर थाल में स्वादिष्ट भोजन परोसकर उसके सामने रख दिया और वह व्यक्ति उस भोजन को बड़े आनन्द के साथ खाने भी लगा है। परन्तु उस प्रसंग पर यदि उसे किसी प्रकार यह ज्ञात हो जाए, कि सम्भवतः इस भोजन में विष डाल दिया गया है तो उस व्यक्ति का वह सारा आनन्द विलुप्त हो जाएगा और उसके मन की सारी एकाग्रता नष्ट हो जाएगी। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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