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धर्म-साधना का आधार | १६९ मोक्ष के अंग न हो सके । सम्यक दर्शन के बिना साधना शून्य बिन्दु से अधिक नहीं है। सम्यक् दर्शन ही वस्तुतः अध्यात्म-साधना का भूल है । मूल के बिना शाखा और प्रशाखा कैसे होगी? ___मैं आपको यह बतला रहा था कि सम्यक दर्शन की ज्योति के बिना जीवन विकसित नहीं बन सकता, उसमें धर्म के बीज अंकुरित नहीं हो सकते । जब आत्मा पर ही आस्था नहीं है, तो फिर धर्म पर भी विश्वास कैसे होगा? मैं यह समझता है, कि प्रत्येक साधक को अपने हृदय में यह विचार करना चाहिए, कि साधना किसके लिए की जाती है ? शरीर के लिए अथवा आत्मा के लिए? शरीर की साधना का कोई महत्व नहीं है । वह तो अनन्त काल से अनन्त बार होती ही रही है । साधना तो आत्मा की होनी चाहिए। पुण्य के खेल इतने चमकदार होते हैं, कि साधक इसके प्रकाश से आगे के एक दिव्य प्रकाश को देख नहीं पाता । संसारी आत्मा पाप करता हुआ भी पाप के फल को नहीं चाहता, किन्तु पुण्य के फल को चाहता है क्योंकि वह उसे मधुर और रुचिकर लगता है। भोगासक्त आत्मा चक्रवर्ती के वैभव को और स्वर्ग के सुख को ही चरम सिद्धि समझता है। सुख की अभिलाषा में यह संसारी आत्मा इतना आसक्त हो जाता है, कि सुख के अतिरिक्त इसे अन्य कोई वस्तू अच्छी नहीं लगती। सुख चाहिए, केवल सुख चाहिए । भले ही वह सुख बन्धन में ही डालने वाला क्यों न हो। यह आत्मा की मोह-मुग्ध दशा है। मोह-मुग्ध आत्मा संसार और संसार के सुखों में इतना आसक्त हो जाता है, कि उसे भवबन्धनों का परिज्ञान ही नहीं होने पाता । संसारी आत्मा दुःख को छोड़ना चाहता है, किन्तु सुख को पकड़ना चाहता है। तत्वदर्शी आत्मा वह है, जो दुःख के समान संसारी सुख को भी त्याज्य समझता है । वह संसारी सुख प्राप्त करके अहंकार नहीं करता, बल्कि सोचता है, कि यह भी एक प्रकार का बन्धन ही है। बन्धन को बन्धन समझना, यही सबसे बड़ा सम्यक दर्शन है। इस सम्यक दर्शन के अभाव में आत्मा अनन्त काल से भटकती रही है और अनन्त काल तक भटकती रहेगी।
मुझे एक लोक-कथानक की स्मृति आ रही है। एक बार की बात है, कि बादशाह अकबर रात्रि के समय अपने महल में सो रहा था। रात्रि को सहसा नींद खूल जाने पर उसने देखा, कि रात काफी व्यतीत हो चुकी है, किन्तु अभी सवेरा होने में कुछ देर है । उसी समय राज
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