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२ | अध्यात्म-प्रवचन
नहीं हो सकते। एक दूसरी बात भी विचारणीय है और वह यह कि कर्मों का बन्ध प्रतिक्षण होता ही रहता है । एक तरफ भोग और दूसरी तरफ बन्ध । साधारण भोगासक्त आत्मा जितना एक जीवन में कर्मफल को भोगता है, उससे कहीं बहुत अधिक वह नवीन कर्मों का बन्ध कर लेता है । एक ओर भोग चलता रहे और दूसरी ओर तीव्र गति से नवीन कर्मों का आगमन एव बन्धन चलता रहे, तब उन कर्मों का अन्त कैसे आयेगा और कब आएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता । कर्मों के भोग का मार्ग, कर्मों के अन्त का मार्ग नहीं बन सकता । कल्पना कीजिए, आप किसी ऐसी सभा में बैठे हुए हैं, जहाँ पर पहले से ही इतने अधिक मनुष्य बैठे हुए हैं, जिनकी संख्या का सही-सही अंकन आप नहीं कर सकते । इस सभा में यदि एक मिनट में एक व्यक्ति बाहर जाए और बदले में दस व्यक्ति बाहर से अन्दर में आएँ तो क्या कभी इस सभा की समाप्ति हो सकेगी, क्या कभी वह स्थान खाली हो सकेगा ? यह एक स्थूल उदाहरण है । कर्म के सम्बन्ध में यह अनुमान भी नही लगाया जा सकता कि प्रतिक्षण आत्मा में कितने नवीन कर्मों का आगमन एवं बन्धन हो रहा है । अस्तु जहाँ निर्गमन कम और आगमन अधिक हो, वहाँ अन्त की कल्पना कैसे की जा सककी है ?
भोग कर कर्मों को समाप्त करना मेरे विचार में किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । सम्पूर्ण जीवन को बात छोड़िए । प्रातः काल से सांय काल तक एक दिन के जीवन में भी, एक आत्मा कितने अधिक नवीन कर्मों का उपार्जन कर लेता है, इसकी परिकल्पना करना भी हमारे लिए शक्य नहीं है । एक क्षण में भी इतने अधिक कर्मदलिकों का संचय एवं उपार्जन हो जाता है, कि सम्पूर्ण जीवन में भी उसे भोगा नहीं जा सकता । फिर सम्पूर्ण जीवन के कर्मों को भोगकर समाप्त करने की आशा करना, क्या दुराशामात्र नहीं है । अतः भोग भोग कर कर्मों को तोड़ना और उनके अन्त की आशा करना उचित नहीं कहा जा सकता । कर्मों का अन्त जब कभी भी, जहाँ कहीं भी और जिस किसी भी आत्मा ने किया है, तब भोग से नहीं, तिर्जरा से ही किया है । अतः कर्मों का अन्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय भोग नहीं, निर्जरा ही है । निर्जरा से ही कर्मों का अन्त किया जा सकता है ।
निर्जरा दो प्रकार की है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । सविपाक निर्जरा का अर्थ है - जिसमें कर्मों को भोगकर
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