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साधना का लक्ष्य | ६१
बद्ध कर्म के फल का वेदन नहीं किया जाता । अतितु फल-भोग से पूर्व ही कर्मों का क्षय किया जाता है । कर्म अपना शुभाशुभ फल दे, उससे पूर्व ही आत्म-संश्लिप्ट उस कर्म को, आत्मा से अलग कर देने की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया निर्जरा है।
भोग और निर्जरा के अर्थ को समझने के बाद अब मुख्य प्रश्न यह उठता है, कि बद्ध कर्म को आत्मा से अलग किस उपाय से किया जाए ? भोग से अथवा निर्जरा से ? दर्शन शास्त्र में इस विषय पर गहन से गहनतम चर्चाएँ की गई हैं। अनेक विकल्पों का समाधान किया गया है। मैं आपको उस गम्भीर चर्चा की अधिक गहराई तक ले जाना नहीं चाहता। किन्तु कुछ गहराई में तो आपको निश्चय ही उतरना पड़ेगा । किसी महासागर के तट पर बैठकर अथवा उसके जल की सतह पर तैर कर, आप उसके बहुमूल्य मणि-मुक्ताओ को प्राप्त नहीं कर सकते। उनकी उपलब्धि के लिए, आपको गहरी डुबकी लगानी पड़ेगी। जीवन की अध्यात्म-साधना में भी यही सिद्धांत लागू होता है।
भोग और निर्जरा ये दो मार्ग ही ऐसे हैं, जिनके द्वारा आत्मा कर्म के बन्धन से विमुक्त हो सकता है। भोग और निर्जरा में से किस मार्ग को अंगीकार किया जाए, जिससे कि आत्मा शीघ्र ही बन्धन-मुक्त हो सके । कुछ विचारक इस तथ्य पर जोर डालते हैं, कि जब तक पूर्वबद्ध कर्मों का पूर्ण रूप से फल नहीं भोग लिया जाएगा, तब तक आत्मा का अपवर्ग और मोक्ष नहीं हो सकता । परन्तु मेरे विचार में यदि फल भोग कर ही कर्म बन्धनों को तोड़ेंगे, तो कर्मों का कभी अन्त नहीं हो सकेगा । मूल कर्म आठ अवश्य हैं, परन्तु उनके उत्तरोत्तर असंख्य प्रकार हैं । असंख्यात योजनात्मक समग्र लोक को बार-बार खाली करके बार-बार भरा जाए, और इस प्रकार असंख्य बार भरा जाए, इतना विस्तार एवं प्रसार है एक-एक कर्म का । और प्रत्येक कर्म की स्थिति भी इतनी लम्बी है कि जिसको कल्पना के माध्यम से भी समझना आसान नहीं है । आठ कर्मों में सबसे विकट और भयंकर कर्म मोहनीय कर्म है। अकेले उस मोहनीय कर्म की दीर्घ स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़, सागरोपम की है । इसके अतिरिक्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की स्थिति भी बड़ी लम्बी है। इन सबको एक जीवन में कैसे भोगा जा सकता है ? इन सबके भोगने में एक जन्म तो क्या, अनन्त-अनन्त जन्म भी पर्याप्त
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