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१७४ | अध्यात्म प्रवचन उसे स्नेह कहा जाता है । यही प्रेम तत्व जब परिवार, समाज और राष्ट्र की सीमाओं को लांघ कर विश्व-व्यापी होता जाता है, विश्व के जन-जन के मन-मन में जब यह राग-द्वेषरहित निर्मल भाव से परिव्याप्त होता जाता है, तब इसे अहिंसा और अभय तथा अत्रासरूप मैत्री कहा जाता है। अहिंसा का अर्थ है-प्राण-प्राण के प्रति निर्मल प्रेम एवं निष्काम सद्भाव । मैत्री का अर्थ है-वह विचार जिसमें सबको आत्मवत समझने की भावात्मक क्षमता एवं शक्ति हो। जब धर्म का प्रकाश सूर्य-प्रकाश के समान धूमरहित विश्वव्यापी एवं लोकव्यापी बनता जाता है, तब उसको अहिंसा और मैत्री कहा जाता है, किन्तु जब धर्म का प्रकाश दीपक के प्रकाश के समान मन्द एवं मन्दतर होकर सीमित एवं सधम होता जाता है, तब उसे भक्ति, प्रेम, स्नेह, वात्सल्य और प्रणय आदि नामों से कहा जाता है।
__ मैं आपसे धर्म की व्याख्या और परिभाषा के सम्बन्ध में कुछ विचार कर रहा था । वास्तव में धर्म को किसी एक व्याख्या में बाँधना अथवा किसी एक परिभाषा की सीमा में सीमित करना, मैं पसन्द नहीं करता । धर्म एक व्यापक तत्त्व है, और मेरे विचार में उसे व्यापक ही रहना चाहिए। धर्म एक वह तत्त्व है, जो अपने अस्तित्व के लिए किसी बाह्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता । वह आरोपित नहीं होता, सहज होता है । जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है, उसे किसी अन्य पदार्थ की आरोपित सहायता की आवश्यकता नहीं है, वैसे ही जिस वस्तु का जो धर्म है, वह सदा निरपेक्ष ही रहता है । आत्मा में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप धर्म है । दर्शन का विपरीत परिणाम मिथ्या दर्शन, ज्ञान का विपरीत परिणाम मिथ्याज्ञान और चारित्र का विपरीत परिणाम मिथ्याचारित्र-ये तीनों वस्तुतः धर्म नहीं है, किन्तु मोहवश इन्हें धर्म समझ लिया गया है। वास्तविक धर्म तो आत्मा का विशुद्ध परिणाम सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र ही है। इसी को अध्यात्मशास्त्र में रत्नत्रय, साधनत्रय और मोक्ष-मार्ग कहा जाता है । जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित हो रहा है, उसे स्व-समय कहा जाता है । इसके विपरीत जो पुद्गल एवं कर्म प्रदेशों में स्थित है, उसे पर-समय कहा जाता है । ये आत्मा मोह के कारण एवं रागद्वष के कारण पर-पदार्थ में उत्कर्य और अपकर्ष को अपना उत्कर्ष और अपकर्ष मानता रहा है । पुद्गल के उत्कर्ष को अपना उत्कर्ष
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