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________________ धर्म-साधना का आधार | १७५ मानना और पुद्गल के अपकर्ष को अपना अपकर्ष समझना, यह सबसे बड़ा मिथ्यात्व है, यह सबसे बड़ा अज्ञान है। इस आत्मा ने अज्ञान एवं मोह के वशीभूत होकर अपने शरीर के विकास को अपना विकास समझा और अपने शरीर के विनाश को अपना विनाश सभझा । यही सबसे बड़ा अधर्म है, यही सबसे बड़ा पाप है और यही सबसे बड़ा पातक है । कुछ व्यक्ति अपने पंथ के शास्त्र और अपने पंथ के वेश को ही धर्म मानते हैं, शेष सबको अधर्म। यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व एवं अज्ञान ही है । क्योंकि धर्म किसी देश-विशेष में नहीं रहता, धर्म किसी पंथ-विशेष में नहीं रहता, धर्म किसी स्थान-विशेष में नहीं रहता, किसी भी बाह्य जड़ वस्तु में धर्म मानना सबसे बड़ा अज्ञान है । क्योंकि धर्म तो आत्मा का गुण है, इसलिए आत्मा में ही रह सकता है । आप एक बात का ध्यान रखिए, कि धर्म किसी स्थूल पदार्थ का नाम नहीं, वह तो स्वस्वरूप का भावनात्मक एवं उपयोगात्मक रूप ही होता है। इसलिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये धर्म है, क्योंकि ये सब आत्मा के निज गुण हैं और निज गुणों का विकास ही सच्चा धर्म है । आप जीवों की अहिंसा एवं दया करते हैं, बड़ी अच्छी बात है । आप सत्य बोलते हैं, बहुत सुन्दर है। आप ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, यह जीवन का एक अच्छा नियम है । आप अपरिग्रह को धारण करते हैं, यह एक अच्छी साधना है। आप किसी भी प्रकार का तप करते हैं अथवा किसी भी प्रकार के संयम का पालन करते हैं, अति सुन्दर ! तप करना अच्छा है और संयम का पालन करना भी अच्छा है। परन्तु क्या कभी आपने यह भी सोचा है कि अहिंसा, संयम और तप की आराधना करना धर्म कब होता है ? यह धर्म तभी बनता है, जबकि अहिंसा पर विश्वास हो, संयम पर विश्वास हो और तप पर विश्वास हो। इन तीनों पर विश्वास का अर्थ होगा, आत्म-सत्ता की श्रद्धा एवं आत्म-सत्ता की आस्था । इसी को सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्त्व कहते हैं । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि यदि सम्यक् दर्शन है, तो अहिंसा भी सफल है, सत्य भी सफल है, अस्तेय भी सफल है, ब्रह्मचर्य भी सफल है और अपरिग्रह भी सफल है, अन्यथा ये सब कुछ निष्फल एवं निरर्थक हैं । अहिंसा पर विश्वास न हो और अहिंसा का पालन किया जाए, संयम पर विश्वास न हो और संयम का पालन किया जाए, तप में विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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