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________________ सम्यग्दर्शनः सत्य-दृष्टि | १३७ नहीं है। इसीलिए अक्षय एवं अनन्त शक्ति का प्रभु होकर भी यह आत्मा, आज से ही नहीं, अनन्त अनन्तकाल से अपने को दीन-हीन एवं अनाथ समझता चला आया है। संसार में जितना भी दुःख है, वह सब स्वरूप के अज्ञान का है । स्वरूप का सम्यक बोध होने पर, स्वरूप की सम्यक् दृष्टि प्राप्त होने पर किसी प्रकार का दुःख और क्लेश नहीं रहता। ___मैं आपसे सम्यक दर्शन की बात कह रहा था और यह बता रहा था कि साधक-जीवन में सम्यक् दर्शन की कितनी महिमा है, कितनी गरिमा है और उसकी कितनी गुरुता है । सम्यक् दर्शन एक वह दिव्य कला है, जिससे आत्मा स्व और पर के भेद-विज्ञान को अधिगत कर लेता है । सम्यक् दर्शन एक वह कला है, जिसके उपयोग एवं प्रयोग से आत्मा संसार के समस्त बन्धनों से विमुक्त हो जाता है तथा संसार के दुःख एवं क्लेशों से रहित हो जाता है। सम्यक दर्शन की उपलब्धि होते ही यह पता चलने लगता है, कि आत्मा में अपार शक्ति है एवं अमित बल है । जब आत्मा अपने को जड़ न समझकर चेतन एवं परम चेतन समझने लगता है, तब समस्त प्रकार की सिद्धियों के द्वार उसके लिए वुल जाते हैं । जरा अपने अन्दर झाँककर देखो और अपने हृदय की अतल गहराई में उतर कर एक बार दृढ़ विश्वास के साथ यह कहो, कि मैं केवल आत्मा हूँ, अन्य कुछ नहीं । मैं केवल चेतन हूँ, जड़ नहीं । मैं सदा शाश्वत हैं, क्षण-भंगुर नहीं। न मेरा कभी जन्म होता है और न मेरा कभी मरण होता है । जन्म और मरण मेरे नहीं हैं, ये तो मेरे तन के खेल हैं। शरीर का जन्म होता है और शरीर का ही एक दिन मरण होता है । जन्मने वाला और मरने वाला मैं नहीं, मेरा यह शरीर है । जिसने अपनी अध्यात्म-साधना के द्वारा अपने सहज विश्वास और सहज बोध को प्राप्त कर लिया, वह यही कहता है कि मैं प्रभु है, मैं सर्वशक्तिमान हैं, मैं अनन्त हैं, मैं अजर, अमर एवं शाश्वत है। वस्तुतः मैं आत्मा है, यह विश्वास करना ही सम्यक दर्शन है। अपनी सत्ता की प्रतीति होना ही अध्यात्म-जीवन की सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। भला आत्म-दर्शन से श्रेष्ठ अन्य हो भी क्या सकता है ? परन्तु स्पष्ट है कि परम्परावादी व्यक्ति सम्यक् दर्शन का अर्थ कुछ भिन्न ही प्रकार समझता है । वह अपने अन्दर न देखकर बाहर की ओर देखता है । वह कहता है कि मेरु पर्वत की सत्ता पर विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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