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________________ १३६ | अध्यात्म-प्रवचन लौटे। घर में प्रवेश करते ही आपने देखा कि वहाँ घोर अन्धकार है, कुछ दीख नहीं पड़ता है, सब शून्य ही शून्य नजर आता है । यद्यपि घर में बहुत सी वस्तुएँ रखी हैं, किन्तु अन्धकार के कारण उनकी प्रतीति नहीं हो पा रही है । घर में सब कुछ रखा है, पर वह सभी अन्धकार में डूब गया है, परन्तु जैसे ही आप दीपक जलाते हैं, तो सारा घर प्रकाश से भर जाता है । अन्धकार उस घर को छोड़कर न जाने कहाँ भाग जाता है । प्रकाश के सद्भाव से आपके घर का अन्धकार ही दूर नहीं भागा, किन्तु उस घर में जो बहुत सो वस्तुएँ हैं, सत्ता होते हुए भी अन्धकार के कारण जिनकी प्रतीति नहीं हो पा रही थी, अब दीपक के प्रभाव और प्रकाश के सद्भाव से उनकी प्रतीति होने लगी है । दीपक के प्रकाश ने किसी नई वस्तु को उत्पन्न नहीं किया, बल्कि पहले से जो कुछ था उसी की प्रतीति करा दी । इसी प्रकार भगवान की वाणी, गुरु का उपदेश और शास्त्र का स्वाध्याय साधक के जीवन में कोई नया तत्व नहीं उड़ेलते, बल्कि जो कुछ ढका हुआ होता है उसी को प्रकट करने में सहायता करते हैं । वे कहते हैं कि साधक ! हम तुम्हारे जीवन में किसी नई वस्तु का प्रवेश नहीं करा सकते, बल्कि जो कुछ तुम्हारे पास है, कुछ ही क्यों, सब कुछ तुम्हारे पास है, किन्तु उसका ज्ञान और भान तुम्हें नहीं है । उस अनन्त सत्ता का ज्ञान एवं भान कराना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है । कल्पना कीजिए उस दरिद्र भिखारी की, जिसके घर की भूमि के नीचे अनन्त रत्न - राशि दबी पड़ी है, परन्तु परिज्ञान न होने के कारण ही वह दरिद्र एवं भिखारी बना हुआ है। काश, उस अनन्त रत्न राशि का उसे परिज्ञान हो जाए तो क्या कभी वह दरिद्र, कंगाल और भिखारी रह सकता है ? फिर क्या कभी वह दूसरे लोगों के द्वार-द्वार पर जाकर झूठे टुकड़े माँगता फिरेगा ? मैं समझता हूँ, अपनी अनन्त रत्न - राशि का स्वामी बन कर वह कभी भीख नहीं मांग सकता, क्योंकि उसकी दरिद्रता, सम्पत्ति में बदल जाएगी । तब वह स्वयं भिखारी न बनकर दाता बन जाएगा। जो भिखारी की बात है, वही साधक की भी बात है । आत्मा में सद्गुणों की अनन्त रत्न - राशि भरी हुई है, किन्तु उसका परिज्ञान एवं परिबोध न होने के कारण ही वह संसार के दुःखों की अग्नि में झुलसता रहता है । आत्मा के अन्दर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त चारित्र की अक्षयनिधि एवं अपार भण्डार भरा पड़ा है, किन्तु इस अल्पज्ञ जीव को उसका परिज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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