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________________ सम्यग्दर्शनः सत्य-दृष्टि | १३५ सकता है । मिथ्या दर्शन का फल है 'संसार' तथा सम्यक् दर्शन का फल है -'मोक्ष' । किन्तु इतना समझ लेना चाहिए कि दर्शन गुण की उक्त दोनों पर्याय एक साथ नहीं रह सकतीं। जब सम्यक् पर्याय है, तब मिथ्या पर्याय नहीं रहेगी और जब मिथ्या पर्याय है तब सम्यक पर्याय नहीं रह सकती। जहाँ रवि है वहाँ रजनी नहीं रह सकती और जहाँ रजनी है वहाँ रवि नहीं रह सकता । जिस घट में काम है, वहाँ राम का अधिवास नहीं हो सकता और जिस घट में राम हैं, उस घट में काम का कोई काम नहीं रहता। इसी प्रकार जब दर्शन की सम्यक् पर्याय है, तब उसकी मिथ्या पर्याय नहीं रह सकती। और जब उसकी मिथ्या पर्याय रहती है, तब उसकी सम्यक् पर्याय नहीं रहती । मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है कि वस्तु में उत्पाद और व्यय पर्याय-दृष्टि से रहता है, द्रव्य दृष्टि एवं गुण दृष्टि से नहीं । द्रव्य दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु सत् है, असत् नहीं। क्यों कि जो सत् है, वह तीन काल में भी असत् नहीं हो सकता और जो असत् है वह तीन काल में भी सत् नहीं हो सकता। किन्तु पर्याय-दृष्टि से प्रत्येक वस्तू सत् एवं असत् दोनों हो सकती है। जब आप यह कहते हैं कि मैंने सम्यक् दर्शन प्राप्त कर लिया, तब इसका अर्थ यह नहीं होगा कि पहले आप में दर्शन नहीं था और आज वह नया उत्पन्न हो गया । इसका अर्थ केवल इतना ही है कि आत्मा का जो दर्शन-गुण आत्मा में अनन्त काल से था, उस दर्शन-गुण की मिथ्यात्व पर्याय को त्यागकर आपने उस की सम्यक् पर्याय को प्राप्त कर लिया है । शास्त्रीय परिभाषा में इसी को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि एवं प्राप्ति कहा जाता है। जैन दर्शन कहता है, कि मूलतः कोई नई चीज' प्राप्त करने जैसी बात नहीं है, बल्कि जो सदा से विद्यमान है, उसी को शुद्ध रूप में जानने, पहचानने और देखने की बात है। सम्यक् दर्शन की प्राप्ति का यही अर्थ यहाँ अभीष्ट है । __ मैं आपसे कह रहा था कि कोई भी महापुरुष, गुरु अथवा शास्त्र किसी भी साधक में नई बात पैदा नहीं कर सकते, बल्कि जो कुछ है उसी की प्रतीति कराते हैं, जो कुछ विस्मृत है उसी का स्मरण भर करा देते हैं। जो शक्ति अन्दर तो है, परन्तु स्मृति से ओझल हो चुकी है, उसका स्मरण करा देना ही तीर्थकर, गुरु और शास्त्र का काम है । कल्पना कीजिए, आप कहीं बाहर से घूम फिर कर अपने घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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