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________________ ३२४ ! अध्यात्म प्रवचन और बुरी वस्तु को देखेगा ही। मनुष्य की दृष्टि के समक्ष जैसी भी वस्तु आ जाती है, वह उसे देखता ही है, और देखकर उस पर कोई न कोई अच्छा या बुरा विचार भी करता है । सम्यक् दर्शन कहता है, कि जब अच्छी वस्तु को देखकर मन पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं और बुरी वस्तु को देखकर मन पर बुरे संस्कार पड़ते हैं, तब बुरी वस्तु को छोड़कर अच्छी वस्तु को ही क्यों न देखा जाय ? कल्पना कीजिए, आपके सामने दो स्त्रियां खड़ी हुई हैं । दोनों तरुणी हैं, नव यौवना है, और दोनों ही रूपवती हैं। परन्तु उनमें से एक सती एवं साध्वी है और दूसरी कुलटा एवं वेश्या है, दोनों में स्त्रीत्व समान होने पर भी, साध्वी को देखकर हृदय में अध्यात्म-विचार उठते हैं और वेश्या को देखकर हृदय में वासनामय ज्वार उठता है । इसलिए अध्यात्म साधक को किसी भी पदार्थ को देखने के समय यह विचार करना चाहिए, कि मैं इस पदार्थ को क्यों देख रहा है ? संसार के किसी भी पदार्थ को रागात्मक दृष्टि से देखना निश्चय ही अधर्म है, और उसे स्वरूपबोध को दृष्टि से देखना, निश्चय ही धर्म है। किसको देखना? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है, कि इस संसार में अनन्त पदार्थ हैं, तुम किस-किस को देखोगे? यह जटिल समस्या है। अतः किसी ऐसे पदार्थ को देखो, जिसके देखने से अन्य किसी के देखने की इच्छा ही न रहे और वह पदार्थ अन्य कोई नहीं, एक मात्र आत्मा ही है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि किसको देखना, इस प्रश्न का एक ही समाधान है, कि आत्मा को ही देखो। आत्मा को देखने पर ही हम अपने लक्ष्य को अधिगत कर सकेंगे । कैसे देखना ? इस प्रश्न के उत्तर में मुझे केवल इतना ही कहना है, कि अभी तक यह आत्मा अनन्त काल से संसार के पदार्थों को मिथ्या दृष्टि से ही देखता रहा है किन्तु जब तक सम्यक दृष्टि से नहीं देखा जायगा, तब तक आत्मा का कल्याण एवं उत्थान नहीं हो सकता । इस प्रकार जब हम वस्तु स्थिति का अध्ययन करते हैं, तब हमें जीवन की वास्तविकता का परिबोध हो जाता है। मिथ्या दर्शन को जब अधर्म कहा जाता है, तब इसका अर्थ यही होता है, कि सम्यक् दर्शन ही सच्चा धर्म है। धर्म क्या है ? यह भी एक विकट समस्या है। आज के युग में जितने भी मतवाद, पंथवाद और सम्प्रदायवाद हैं, सब अपने को धर्म कहते हैं । विचारणीय प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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