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________________ सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३२३ अपना हो अथवा दूसरों का हो, बिना किसी मताग्रह एवं पूर्वाग्रह के तटस्थ भाव से सत्य को सत्य समझना ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है । मैं आपसे पहले कह चुका हूँ, कि सप्त तत्वों पर निश्चित दृष्टि, प्रतीति अर्थात् श्रद्धान ही मोक्ष-साधन का प्रथम अंग है । अध्यात्म साधना में सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक होता है, कि आत्म-धर्म क्या है और आत्म-स्वभाव क्या है ? आत्मा और अनात्मा में भेद - विज्ञान को अध्यात्म भाषा में सम्यक् दर्शन कहा जाता है । आत्म स्वरूप का स्पष्ट दर्शन और कल्याण पथ की दृढ़ आस्था, यही सम्यक् दर्शन है । कभी-कभी हमारी आस्था में और हमारी श्रद्धा में भय से और लोभ से चलता और मलिनता आ जाती है । इस प्रकार के प्रसंग पर भेदविज्ञान के सिद्धान्त से ही, उस चलता और मलिनता को दूर हटाया जा सकता है । सम्यक दर्शन की ज्योति जगते ही, तत्व का स्पष्ट दर्शन होने लगता है । स्वानुभूति और स्वानुभव यहो, सम्यक् दर्शन की सबसे संक्षिप्त परिभाषा हो सकती है । कुछ विचार-मूढ़ लोग बाह्य जड़ क्रिया काण्ड में ही सम्यक् दर्शन मानते हैं । किन्तु सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध किसी भी जड़ क्रियाकाण्ड से नहीं है, उसका एक मात्र सम्बन्ध है, आत्म-भाव की विशुद्ध परिणति से । सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध न किसी देश विशेष से है, न किसी जाति - विशेष से है, और न किसी पंथ - विशेष से ही है । जब तक यह आत्मा स्वाधीन सुख को प्राप्त करने की ओर उन्मुख नहीं होता है, तब तक किसी भी प्रकार की धर्म - साधना से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता । अपनी आत्मा में अविचल आस्था करना ही जब सम्यक् दर्शन का वास्तविक अथ है, तब शरीरापेक्ष किसी भी बाह्य जड़ क्रिया काण्ड में और उसके विविध विधिनिषेध में सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता । मैं आपसे सम्यक् दर्शन की बात कह रहा था । सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है, किन्तु सम्यक् दर्शन एक ऐसा विषय है, कि जीवन भर भी यदि इस पर विचार किया जाए, तब भी इस विषय का अन्त नहीं आ सकता, फिर भी सम्यक् दर्शन पर कुछ आवश्यक बातों पर विचार-विनिमय हो जाना आवश्यक है । जब सम्यक् दर्शन में दर्शन पद का सामान्य रूप से देखना अर्थ किया जाता है, तब प्रश्न उठता है, कि क्या देखना, क्यों देखना, और किसको देखना ? क्यों देखना, यह एक प्रश्न है, जिसके उत्तर में कहा जाता है, कि जिसके पास दृष्टि है और देखने की शक्ति है, वह अच्छी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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