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सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३२५ यह है, कि पंथ और सम्प्रदाय धर्म हैं अथवा धर्म की प्रयोगभूमि हैं। मैं पंथ और सम्प्रदाय को धर्म न मानकर धर्म की प्रयोगभूमि और साधना-भूमि ही मानता है। मेरे विचार में धर्म का सम्बन्ध किसी बाह्य वस्तु से नहीं है । मनुष्य के आन्तरिक जीवन की विशुद्धि को ही वस्तुतः धर्म कहा जाना चाहिए। केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि समग्र चेतना के सम्बन्ध में यही कहना चाहिए, कि चेतन की अंतरंग विशुद्ध परिणति को ही, धर्म कहा जाता है। कुछ आचार्यों ने इसो आधार पर वस्तु-स्वभाव को धर्म कहा है। प्रत्येक वस्तु का अपना निज स्वभाव ही धर्म है, तथा प्रत्येक वस्तु का स्वभाव से च्युत होना ही अधर्म है । आत्मा जब तक अपने स्व स्वरूप में स्थित है, वह धर्मी रहता है और जब वह स्व स्वरूप को छोड़कर पर स्वरूप में स्थित होता है, तब वह अधर्मी बन जाता है । सम्मक् दर्शन आत्मा का स्व स्वरूप है और मिथ्या दर्शन आत्मा का परस्वरूप है। शान्त रहना स्व स्वरूप है और क्रुद्ध होना परस्वरूप है । आत्मा के स्वस्वरूप से च्युत होने का कारण है, अपने स्वस्वरूप और अपनी सीमा का अज्ञान । जब आत्मा स्वस्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपनी सीमा में न रहकर पर की सीमा में प्रवेश कर जाता है और यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । शास्त्रकारों ने बतलाया है, स्वानुभूति और स्वस्वरूपस्थिति हो वास्तविक धर्म है; इसके अतिरिक्त जो भी कुछ बाह्य क्रिया काण्ड और विधि-विधान है, वे उपचार से ही धर्म कहे जा सकते हैं। वास्तविक रूप में वे धर्म नहीं कहे जा सकते।
मैं जहाँ तक अध्ययन कर पाया हूँ, सम्यक् दर्शन की परिभाषा के तीन प्रकार उपलब्ध होते हैं-तत्त्वार्थ श्रद्धान, देव-गुरु-धर्म पर विश्वास और आत्मा अनात्मा का भेद-विज्ञान । विभिन्न आचार्यों ने अपने विभिन्न ग्रन्थों में उक्त तीन रूपों का ही कथन किया है। कहीं पर संक्षेप से वर्णन है और कहीं पर विस्तार के साथ । एक ने जिसको मुख्य माना तो दूसरे ने उसी को गौण मान लिया। परन्तु इन तीन रूपों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा रूप नहीं है सम्यक् दर्शन का, जिसका उल्लेख किया जा सके । तत्त्वार्थ श्रद्धान दार्शनिक जगत की वस्तु रहा, भेद-विज्ञान अध्यात्म-शास्त्र का विषय रहा और देव-गुरु एवं धर्म पर विश्वास, यह एक सम्प्रदाय सम्बन्धी सम्यक् दर्शन रहा। किन्तु निश्चय दृष्टि से विचार करने पर आत्मा अनात्मा का भेद
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