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३२६ / अध्यात्म-प्रवचन
विज्ञान ही, सम्यक् दर्शन है । इसके अभाव में न तत्त्वों पर श्रद्धान होगा। न देव-गुरु पर विश्वास हो । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि बाहर के किसी भी पूजा-पाठ में अथवा बाहर के किसी भी क्रियाकलाप में सम्यक दर्शन मानना उचित नहीं है। वीतराग वाणी में विश्वास भी तभी जमता है, जबकि आत्मा पर आस्था जम गई हो । घूम फिर कर एक ही तथ्य पर दृष्टि केन्द्रित होती है, कि आत्मा को जानना ही सच्चे अर्थों में सम्यक् दर्शन माना जा सकता है। यदि आत्मा को नहीं जाना, तो सब कुछ को जानने से भी किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता । और यदि आत्मा को जान लिया और उसके स्वरूप की पहचान कर ली तो मैं समझता हूँ, हमने सब कुछ प्राप्त कर लिया। अध्मात्म-साधना में सबसे मुख्य बात आत्मस्वरूप को समझने की और आत्म-स्वरूप पर स्थिर दृष्टि करने की ही है। किसी भी वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए उसके मूल स्वरूप को समझने का ही प्रयत्न होना चाहिए, इसी में उसका यथार्थ दर्शन होता है।
सम्यक् दर्शन चेतना का धर्म है, परन्तु खेद है कि आज के युग में उस समाज, राष्ट्र और वर्ग एवं वर्ण के साथ भी जोड़ा जा रहा है । सम्प्रदायवादी लोग यह सोचते और समझते रहे हैं कि इस संसार में धर्म के सच्चे दावेदार हम ही हैं, अन्य कोई नहीं । एक अंग्रेज यह विश्वास करता है, कि संसार में गोरी जाति शासन करने के लिए है और काली जाति शासित होने के लिए है । कुछ लोग यह सोचते हैं कि स्त्री जाति पुरुष जाति की अपेक्षा हीन है-बल में भी, बुद्धि में भी और जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी। कुछ लोग यह सोचते हैं, कि मानव जाति में अमूक वर्ग और अमुक वर्ण श्रेष्ठ हैं, दूसरे निकृष्ट हैं । कुछ लोग यह सोचते हैं, कि हमारा राष्ट्र सबसे बड़ा है और सबसे श्रेष्ठ है। कुछ लोग यह भी सोचते रहे हैं, कि अमुक भाषा पवित्र है और अमुक भाषा अपवित्र है। परन्तु मैं इन सबको मिथ्या विकल्प और मिथ्या विचार समझता हूँ। मानवमानव में भेद, घृणा और द्वेष फैलाना किसी भी प्रकार से धर्म नहीं हो सकता । संसार के इतिहास को पढ़ने से पता लगता है, कि किस प्रकार विश्व की जातियाँ पंथ की रक्षा के लिए धर्म के नाम पर लड़ती रही हैं । भारतवर्ष में ब्राह्मणों के द्वारा अन्य वर्गों का तिरस्कार और जर्मन में यहूदी जाति का बहिष्कार कुछ इस प्रकार के कृत्य हैं,
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