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________________ सम्यक् दर्शन की महिमा | १९१ उग्रता का वेग बाहर से उतना नहीं, जितना कि अन्दर में रहता हैं, जो अन्दर ही अन्दर शरीर की हड्डियों को गलाता रहता है, और चिकित्साशास्त्र की दृष्टि में दुःसाध्य भी होता है। मैं आपसे मिथ्या दर्शन के दो रूपों की चर्चा कर रहा था-अभिगृहीत और अनभिगृहीत । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि यद्यपि अध्यात्म दृष्टि से दोनों ही मिथ्यात्व आत्मा का अहित करने वाले है, तथापि अनभिगृहीत की अपेक्षा अभिगृहीत मिथ्यात्व चाहे कितना भी उग्र एवं भयंकर क्यों न हो, फिर भी उसमें विचार एवं विकास के लिए अवकाश रहता है । इन्द्रभूति गणधर गौतम का नाम आप जानते ही हैं। वे अपने युग के प्रकाण्ड पण्डित थे और धुरन्धर विद्वान थे। उनका विश्वास था कि यज्ञ में बलि देने से धर्म होता है और इससे लोक तथा परलोक दोनों जीवन आनन्दमय एवं उल्लासमय बनते हैं। गौतम के पांडित्य का प्रभाव प्रायः भारत के प्रत्येक प्रांत में फैल चुका था । इतना ही नहीं, उसके अद्भुत पांडित्य की छाप सुदूर हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक जन-मानस पर गहरी अंकित हो चकी थी। उसने अपने जीवन में दो चार नहीं, हजारों-हजार शास्त्रार्थ किए, जिनमें विजय प्राप्त की । यह सब कुछ होने पर भी, यह कहा जा सकता है, कि गौतम जिस प्रकार अपने युग का सबसे बड़ा पण्डित था, उसी प्रकार वह अपने युग का घोर एवं भयंकर अभिगृहीत मिथ्यात्वो भी था । भगवान महावीर के समवसरण में जाते हुए देवताओं को देखकर उसने उन देवताओं को इस आधार पर पागल मान लिया था, कि वे उसकी यज्ञशाला में न उतरकर भगवान महावीर के समवसरण में क्यों चले जा रहे हैं ? गौतम अपने पंथ एवं सम्प्रदाय में इतना प्रगाढ़ रागांध था, कि उसने भगवान महावीर को भी ऐन्द्रजालिक कह दिया था । गौतम के मन में यह भी अहंकार था, कि मेरे पांच सौ शिष्य हैं और अब मैं अवश्य ही इस ऐन्द्रजालिक महावीर को अपना शिष्य बनाकर छोड़ गा । इस घोर अहं एवं मिथ्यात्व के दर्प को लेकर वह भगवान महावीर के समवसरण में पहुंचा। जब वह भगवान के समीप पहुँचा, तब भगवान की शांत एवं भव्य छवि को देखकर तथा उनके दिव्य प्रभाव से प्रभावित होकर सहसा अपने आपको भूल-सा गया । उसका सारा अभिमान गल कर समाप्त होने लगा । भगवान महावीर ने शांत एवं मधुर स्वर में कहा-“गौतम ! तुम्हारा आगमन शुभ है, तुम बहुत ठीक समय पर आये हो।" भगवान के श्रीमुख से इन मधुर शब्दो के साथ दिये गए तत्वोपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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