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________________ १६० । अध्यात्म-प्रवचन अभावरूप मिथ्यात्व रहता है। इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि अभिगृहीत मिथ्यात्व की अपेक्षा अनभिगृहीत मिथ्यात्व अधिक भयंकर होता है। यद्यपि भयंकर तो दोनों ही हैं, क्योंकि दोनों ही दशाओं में मिथ्यात्व की शक्ति रहती है, तथापि अभिगृहीत की अपेक्षा अनभिगृहीत को भयंकर मानने का कारण यह है, कि उसमें किसी प्रकार की विचार-दशा ही नहीं रहती, अतः सतत मूढ़दशा ही बनी रहती है । अभिगृहीत मिथ्यात्व मताग्रहरूप विचार-दशा में होता है। ऊपर से यह अधिक भयंकर प्रतीत होता है, परन्तु मूलतः ऐसा नहीं है। क्योंकि यदि वह आज पतन के मार्ग पह है, तो कल उत्थान के मार्ग पर भी लग सकता है। यदि आज वह कुमार्ग पर चल रहा है, तो कल वह सन्मार्ग पर भी चल सकता है। विचार-शक्ति तो है ही, केवल उसकी धारा बदलने की आवश्यकता है। कल्पना कीजिए, किसी व्यक्ति को १०४ डिग्री अथवा १०५ डिग्री तीव्र ज्वर चढ़ा है, जिसके कारण ज्वरग्रस्त रोगी बहुत ही व्याकुल और परेशान रहता है। यह तीव्र ज्वर बहुत ही भयंकर होता है, क्योंकि इससे शरीर की अशक्ति एवं व्याकुलता बढ़ी रहती है। परन्तु एक दूसरा व्यक्ति है, वह भी ज्वरग्रस्त है। उसका ज्वर हल्का रहता है, किन्तु दीर्घकाल तक चलता रहता है, जब कि तीव्र ज्वर शीघ्र आता है और शीघ्र ही लौट भी जाता है। ज्वर दोनों को है, एक को तीव्र है, दूसरे को मन्द है, किन्तु इन दोनों में भयंकरतम ज्वर कौन-सा है ? निश्चय ही तीव्र ज्वर की अपेक्षा दीर्घकाल स्थायी मन्द ज्वर ही अधिक भयंकर है। यही स्थिति अभिगृहीत मिथ्यात्व और अनभिगृहीत मिथ्यात्व की है । अभिगृहीत मिथ्यात्व की अपेक्षा अनभिगृहीत मिथ्यात्व अधिक भयकर है । अभिगृहीत मिथ्यात्व तीव्र ज्वर के समान है और अनभिगृहीत मिथ्यात्व मन्द ज्वर के समान है । अनभिगृहीत मिथ्यात्व इस आधार पर अधिक भयंकर है, कि उसमें जीव की विचार-शून्य दशा रहती है एवं मूढ़ दशा रहती है, जिसमें अपने हित-अहित का कुछ भी चिन्तन नहीं रहता, जिसमें अपने उत्थान एवं पतन का कुछ भी संकल्प नहीं रहता। मैं कौन हूँ और क्या हूँ-यह भी भान नहीं रहता । अध्यात्म-दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही भयंकर है । अभिगृहीत मिथ्यात्व उस भयंकर तीव्र ज्वर के समान है, जिस पर यथावसर शीघ्र ही एवं आसानी से काबू पाया जा सकता है, परन्तु अनभिगृहीत मिथ्यात्व उस मन्द एवं दीर्घ काल स्थायी ज्वर के समान है, जिसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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