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________________ सम्यक दर्शन की महिमा | १८६ विचारजन्य होने के कारण अभिगृहोत कही जाती है । इसके विपरीत जब विचार-दशा जागृत न हुई हो, तब अनादिकालीन दर्शन मोहनीय कर्म के आवरण के कारण केवल मूढ़-दशा होती है। यह मूढ़-दशा निगोदवर्ती आदि अविकसित जीवों में रहती है। उन जीवों में जैसेअतत्त्व का श्रद्धान नहीं है, वैसे तत्त्व का श्रद्धान भी तो नहीं होता। इस दशा में केवल मूढ़ता होने से तत्त्व का अश्रद्धान रूप मिथ्यात्व हैं । यह उपदेश-निरपेक्ष होने से अनभिगृहीत मिथ्यात्व कहा गया है। पंथ, मत, सम्प्रदाय आदि सम्बन्धी जितने भी एकान्त-प्रधान कदाग्रह हैं, वे सभी अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं, जो कि विकसित चेतना वाली मनुष्य आदि जातियों में हो सकता है। और दूसरा अनभिगृहीत मिथ्यात्व तो एकेन्द्रिय निगोद आदि तथा क्षुद्र कीट पतंग आदि जैसी मूच्छित चैतन्य वाली जातियों में ही सम्भव है। ____ मैं आपसे कह रहा था, कि, देव को कुदेव और कुदेव को देव, गुरु को कुगुरु और कुगुरु को गुरु, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म, आदि समझने जैसे मिथ्यात्व के मापदण्ड तो पन्थयुग के बने हैं। ये सब उस समय कहाँ थे ? यह मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की परिभाषा एवं शब्दावली उस समय कहाँ थी, जब कि हमारी यह आत्मा निगोद आदि स्थिति में रही होगी। वहाँ पर अतत्त्व श्रद्धान रूप मिथ्यात्व नहीं था, फिर भी वहाँ मिथ्यात्व की स्थिति तो अवश्य थी ही। क्योंकि अतत्त्व का श्रद्धान तो मिथ्यात्व है ही, परन्तु तत्त्व का श्रद्धान न करना भी मिथ्यात्व ही है। उस स्थिति में और उस दशा में तत्त्व का श्रद्धान न करने का मिथ्यात्व था। __ अतत्त्व का श्रद्धान करना अभिगृहीत मिथ्यात्व है। इसको दूसरे शब्दों में विपरीत श्रद्धान भी कहा जा सकता है । इधर-उधर के ग्रन्थ, पोथी-पन्ने और पंथ एवं संप्रदायों से ग्रहण की हुई विपरीत दृष्टि अतत्त्व का श्रद्धान ही है । परन्तु जिस निगोद आदि स्थिति में विपरीत विकल्पों को ग्रहण करने वाला मन ही नहीं है, वहाँ विपरीत श्रद्धान रूप मिथ्यात्व नहीं होता। वहाँ तत्त्व के श्रद्धान का अभाव-स्वरूप अनभिगृहीत मिथ्यात्व होता है। अभिगृहीत मिथ्यात्व वह है, जा मन एवं बुद्धि से ग्रहण किया जाता है । यह विकसित चेतना वाले प्राणियों में ही हो सकता है । एकेन्द्रिय आदि जीव में द्रव्यमन नहीं होता और चिन्तन की स्पष्ट बुद्धि भी नहीं होती, इपी से वहाँ अतत्त्व के श्रद्धानरूप अभिगृहीत मिथ्यात्व भी नहीं होता, परन्तु तत्त्व के श्रद्धान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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